Sunday, November 8, 2009

बेरहम मनुष्य का दोस्त

 वृक्षों ने मनुष्यों के लिए बहुत कुछ दिया. हमने उनसे सहनशीलता सीखी, हमने उनपर पत्थर बरसाए लेकिन बदले में उन्होंने हमें फल दिए, छाया दी , पर्यावरण को शुद्ध किया. वृक्षों के सौन्दर्य ने सुमित्रा नंदन पन्त, निराला,महादेवी वर्मा आदि अदभुद कवियों के शब्दों को जीवंत और मोहक बनाया. उन्होंने हमारे घरों को रहने लायक बनाया, अपना बलिदान देकर हमारे घरों को सजाया . उनकी ईमानदारी और सीधेपन के कारण हमने उनका भरपूर दोहन किया.


आज स्वहित और तथाकथित विकास के लिए उनका सफाया किया जा रहा है. वृक्ष धीरे धीरे लुप्त हो रहे हैं.
आज लकड़ी के सामान का विकल्प स्टील, लोहा , फाईबर, प्लास्टिक, आदि के रूप में बाजार में उपलब्ध है. हम इतनी कोशिश तो कर ही सकते हैं कि इन विकल्पों को अपने घरों में सजाएँ, उनका उपयोग करें..और वृक्षों पर थोडा तरस खाएं..इन्ही विचारों से उपजीं कुछ पंक्तियाँ....




जब भी देखता हूँ,
अपने घर की चौखट को,


दरवाजों को, खिड़कियों को,


वृक्ष के अवशेषों से निर्मित


आरामदायक कुर्सियों को.




एक हूक सी उठती है दिल में,


रहे होंगे कभी बीज रूप में,


मिटटी के पोषण से आकार लिया होगा


एक नरम मुलायम पौधे ने-


बड़े संघर्षों के बाद स्वयं को बचाते हुए -


बड़ा हुआ होगा वृक्ष,


उगी होंगी फूल और पत्तियां


फूटी होंगी कोपलें


कभी बहता होगा हरा द्रव


होगी सम्पूर्ण चेतना उसमे,




नाचा होगा,


मंद मंद हवा के झोकों में


महकाया होगा वन उपवन,


प्रफुल्लित हुआ होगा-


जब किसी पथिक ने,


बिताये होंगे क्षण दो क्षण,


उसकी छाया में


वही वृक्ष


आज है निर्जीव,


मनुष्य के क्रूर बेरहम हाथों ने


छीन लिया


उसे इस धरा से.


देखता हूँ आज ,  
दरवाजे, खिड़कियाँ, कुसियाँ...


अस्तित्व खोकर भी,


बेरहम मनुष्य का दोस्त......

Sunday, November 1, 2009

मेरी प्रथम पचास टिप्पणियाँ....और स्नेही मित्रों का आभार.

आज से दो माह पहले ब्लॉग सफर शुरू किया था यह सफर कहाँ तक पहुंचेगा यह तो भविष्य के आगोश में है, लेकिन इसका प्रतिफल मेरे लिए सुखद रहा .सबसे पहले में रचना जी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहूँगा जिन्होंने पता नहीं कहाँ से खोज कर मेरा ब्लॉग पढ़ लिया और तत्काल टिप्पणी से भी मेरा उत्साहवर्धन किया जबकि मैं उस समय किसी भी एग्रीगेटर से नहीं जुड़ा था. हालाँकि अब उनकी प्रोफाइल मौजूद नहीं है लेकिन मैं उन्हें नारी ब्लॉग के माध्यम से पढता रहता हूँ.

ब्लोगवाणी और चिटठा जगत से जुड़ने के बाद मेरे दुसरे आलेख पर जिन मित्रों की टिप्पणियाँ आईं वे ब्लॉग दुनिया के जाने माने नाम हैं.. बी. एस. पाबला. संदीप वेदरत्न शुक्ल, चन्दन कुमार झा, गार्गी गुप्ता, अमित के सागर... मैं उनका ह्रदय से आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया.

मेरे तीसरे आलेख को सुशील कुमार छौक्कर, वीनस केशरी, हरकीरत हकीर, और सुमन जी ने अपने सुन्दर शब्दों से सराहा.
 मेरे चौथे आलेख पर हिंदी ब्लॉग एवं टिप्पणियों के शहंशाह उड़न तश्तरी वाले समीर लाल जी उपस्थित हुए. उन्हें अपने ब्लॉग पर पाकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई.. साथ में उपस्थित हुए अनिल कान्त , रूपम, राजेश कुमार और अनुराग

अपने पांचवे आलेख में मैं परिचित हुआ ब्लॉग जगत की कुछ अनूठी हस्तियों से. मेरे इस आलोचनात्मक लेख पर उनकी सहमती और असहमति दोनों ही प्रेम पूर्ण ढंग से अभिव्यक्त हुईं. पी. सी. गोदियाल, दिगंबर नासवा, अविनाश वाचस्पति, दीप्ती, अनूप शुक्ल रूपम और अनुराग का बहुत बहुत आभार....
मेरा अगला आलेख मटुकजूली ब्लॉग पर आधारित था. इस लेख पर आदरणीय निर्मला कपिला जी और कार्टूनिस्ट काजल कुमार की असहमति थी. विचारों से सहमती असहमति जिन्दगी का एक हिस्सा है दोनों इस ब्लॉग पर पधारे यही मेरे लिए बहुत है. इसके साथ ही दीप्ती, मटुकजूली, और अनुराग ने अपने विचारों से मुझे अवगत कराया.. बहुत बहुत धन्यवाद...

"आस्तिक और नास्तिक एक ही थैली के चट्टे बट्टे" इस आलेख पर मुझे सबसे पहले टिप्पणी मिली आदरणीय दिनेश राय द्विवेदी जी की.. उनको पढ़कर मुझे अपने लेखन की सार्थकता समझ में आई . ब्लॉग दुनिया को द्विवेदी जी से सीखने के लिए बहुत कुछ है उनके आलेख तो मजेदार होते ही हैं उनकी टिप्पणियाँ भी सारगर्भित और प्रेरणा से परिपूर्ण होती हैं. उनके लेखन और व्यक्तित्व पर अलग से ही कुछ लिखा जा सकता है. इसी आलेख पर लवली कुमारी, प्रवीण शाह, संजय ग्रोवर , सुमन और रूपम की टिप्पणियाँ भी प्राप्त हुयीं. लवली कुमारी तो पूरी तरह से वैज्ञानिक हैं, एवं प्रवीण शाह भी वैज्ञानिक विचार धारा का पोषण करते हैं हालाँकि मेरा विचार है कि अध्यात्म और विज्ञानं अलग अलग नहीं हैं. खोज करने के रास्ते अलग हो सकते हैं..


मेरे अगले आलेख पर जिन महानुभावों की टिप्पणियाँ मुझे मिलीं. वे भी ब्लॉग जगत के सम्मानीय नाम हैं. अर्शिया, अरविन्द शुक्ला, संजीव कुमार सिन्हा, आर्जव, सतीश सक्सेना, अरुण राजनाथ/ अरुणकुमार, मनोज भारती, अफलातून, रूपम, की टिप्पणियाँ मेरे लिए प्रेरणादायक रहीं विचारों से ओत प्रोत सुन्दर अभिव्यक्तियों के लिए मेरा आभार स्वीकार करें.

मेरा अगला आलेख जहाँ मेरी पचास टिप्पणियाँ पूरी होती हैं, उनमे शामिल हैं, मेरे मित्र -अफलातून, सची, रूपम, विनय, मुनीश, प्रवीण शाह, मुमुक्ष की रचनाये, रविकुमार, गठरी,  इन सभी का बहुत बहुत अभिनन्दन, विश्वाश है कि आगे भी मुझे आपका प्यार इसी तरह से मिलता रहेगा. ..


और अंत में आभारी हूँ मेरे दो अभिन्न मित्रों का, प्रथम अनुराग जो हमेशा मुझे ब्लॉग दुनिया की तरफ ठेलते रहे और रूपम  का जिन्होंने मुझसे तकनीकी सहयोग बनाये रखा.
शेष अगली बार....


Sunday, October 25, 2009

निस्संदेह हिंदुत्व खतरे में है!!!

हमारे देश के हिन्दू संगठन रातदिन हो हल्ला मचाते हैं, हिन्दू एक नहीं हैं. धर्म परिवर्तन करके मुसलमान या ईसाई बन रहे हैं. हिंदुत्व खतरे में है....पूछने पर कि ऐसा क्यों है? सारा दारोमदार इसलाम का प्रचार या ईसाई मिशनरियों के ऊपर थोप दिया जाता है....लेकिन हिन्दू समाज की विसंगतियों पर किसी संगठन या धर्माधिकारी का ध्यान नहीं जाता है. दूसरे धर्मों के लोग इस महान कहे जाने वाले हिन्दू समाज में दीक्षित क्यों नहीं हो रहे हैं..?

 यही प्रश्न मैंने अपने एक मित्र जो कि विश्व हिन्दू परिषद् के जिला महामंत्री हैं, के सामने रखा. लेकिन मुझे कोई समुचित उत्तर न मिलने पर मैंने उनसे कहा कि बहुत से अन्य धर्मों के लोग हैं जो कि   इस हिन्दू  धर्म में दीक्षित होना चाहते हैं, लेकिन पहले यह बताइए कि दीक्षित होने के बाद आपका विश्व हिन्दू परिषद् उन्हें किस जाति में रखेगा? आपके धर्म में शूद्र होना कोई नहीं चाहेगा क्या आप उन्हें ब्राह्मण वर्ग में जगह दे सकते हैं और कि क्या ब्राह्मण वर्ग उन्हें  ह्रदय से स्वीकार कर उनसे रोटी बेटी का सम्बन्ध स्थापित कर सकता है...? उनके उत्तर की प्रतीक्षा आज भी है मुझे...

सच तो यह है इस आधुनिक युग में भी हम कविलियाई संस्कृति से मुक्त नहीं हुए हैं 'आप ब्राह्मण, मैं भी ब्राह्मण आप कायस्थ , मैं भी कायस्थ- अब ठीक! अब ढपली ठीक बजेगी! आज भी हमारे यही विचार हैं. रेल में सफर करते हुए जब तक हम सहयात्री की जाति नहीं जान लेते हमारी आत्मा बेचैन रहती है.. और ये अनपढों की बातें नहीं शिक्षित और उच्च शिक्षित लोगों की भी यही मानसिकता है.

सभी ने अपने अपने संघ या कबीले बना रखे हैं. ब्राह्मण महापंचायत, क्षत्रिय समाज , अखिल भारतीय कायस्थ समाज,
कोरी समाज,  यादव समाज और न जाने क्या क्या...और यह सारा खेल समाज व्यवस्था के नाम पर चल रहा है.

चाहे विश्व हिन्दू परिषद् हो शिवसेना हो, बजरंग दल हो या अन्य कोई दलदल इस तरफ से सभी ऑंखें मूंदे हुए हैं, सभी लोगों के पांव जातिवाद के  कीचड में सने हैं. लोग मुसलमानों का विरोध कर रहें हैं ,लेकिन हिन्दू समाज की सडांध पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.

कट्टरवाद रूपी कैंसर से पीड़ित समूह, धर्म के नाम पर हिन्दू समाज को नालायक बनाये रखने की चाल में सफल है. उन्हें पता है कि यदि हिन्दू समाज अपनी जाति की बेडियों से मुक्त हो गया तो उसे मूर्ख   बनाना मुश्किल हो जायेगा. यदि एक जाति दूसरी जाति से मेल मिलाप करने लगी तो जाति के नाम पर श्रेष्ठता अर्जित करने वाले और उन पर अपनी धाक जमा कर रोजी रोटी चलाने वालों  का क्या होगा? और यही हिन्दू दुसरे धर्मों से मेलजोल और  उनसे रोटी बेटी का सम्बन्ध रखने लगा  तो, शिवसेना और विश्व हिन्दू परिषद् आदि संगठनो का क्या होगा, उनकी नेतागिरी किस दम पर चलेगी?

बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद हिन्दू, मुस्लमान की खाई को और अधिक गहरा किया गया है. हिन्दू को और अधिक हिन्दू और मुसलमान को और अधिक मुसलमान बनाने का कुप्रयास निरंतर जारी है. हिन्दू इसके पूर्व अपने समाज में व्याप्त बुराइयों पर खुल कर चर्चा करता था लेकिन अब अपने ही गिरेहबान में झाँकने की उसकी हिम्मत नहीं होती. हिंदुत्व पर खतरा जैसा विचार उसके मस्तिष्क में बिठा दिया गया है. इस मानसिकता का सबसे अधिक कुप्रभाव युवा पीढी पर देखने को मिल रहा है. अब तो कुछ लोग सड़ीगली परम्पराओं को फिर से स्थापित करने के लिए इन कुप्रथाओं में तर्क और वैज्ञानिकता ढूँढने का बेढंगा प्रयास करने में जुटे हैं...
हम भविष्य की पीढी के लिए कौनसा आदर्श उपस्थित कर रहे हैं आज इस बात को समझना हर प्रबुद्ध व्यक्ति की प्रथम आवश्यकता है...

Sunday, October 11, 2009

गंगा जमुनी संस्कृति को समझो मेरे हिन्दुस्तानी मित्र!!!

मेरे दिन की शुरुआत आबिदा परवीन की गाई कबीर बानी से शुरू होती है. नुशरत फतह अली खान एवं ए आर रहमान का मैं जबरदस्त प्रशंसक हूँ.. आमिर खान और दिलीप कुमार मेरे सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं की सूची में हैं. मैं शाहरुख़ को पसंद करता हूँ और सलमान खान के परिवार को इस देश के लिए एक आदर्श परिवार... मुझे सितारवादक रविशंकर और अनुष्का शंकर के साथ साथ सरोदवादक अमजद अली खान और उनकी न्रत्यांगना पत्नी शुभलक्ष्मी एक कलाकार के रूप में बेहद पसंद है. आमिर खान और शाहरुख़ खान की पत्नियाँ हिन्दू है, और ऋतिक रोशन और सुभाष घई की पत्नियाँ मुस्लिम समाज से सम्बन्ध रखती हैं, ये लोग अपने अपने धर्म का पालन करते हुए भी एक साथ जीवन व्यतीत कर रहे है, इनकी पत्नियाँ स्वतंत्र है. मैंने अभी तक नहीं पढ़ा या सुना कि धर्म के कारण इनमे कभी कलह हुई हो... इन सब प्रत्यक्ष उदाहरणों के बाद भी देश में साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं...

किसी भी देश की संस्कृति किसी की व्यक्तिगत बपौती नहीं होती. समय के साथ साथ इसमें बदलाव होता है. कई संस्कृतियों के मेल से एक संस्कृति का जन्म होता है. और वह संस्कृति समय के साथ फलती फूलती रहती है. जब किसी संस्कृति में कट्टरता के तत्व आ जाते हैं तो वह संस्कृति स्वतंत्रता में बाधक बन जाती है. और वहीँ से उसका पतन शुरू हो जाता है. संस्कृति का मूल स्वभाव लचीला होता है...हमारी संस्कृति ही गंगा जमुनी है.

जब जगजीत सिंह अपनी मधुर आवाज में निदाफाजली और बशीर बद्र को सुनाते हैं, जब पॉँच वक्त की नवाज पढने वाले मुहम्मद रफी गाते हैं "वृन्दावन का कृष्ण कन्हैया सबकी आँखों का तारा " या नौशाद की धुन पर "मन तरपत हरि दर्शन को आज " तो आपको कौनसा धर्म याद रहता है..?.

जब इस्मत चुगताई प्रथ्वी राजकपूर की एक झलक पाने के लिए बेताब रहती हैं. जब अमृता प्रीतम साहिर लुधियानवी के ख्वाबों में खोई रहती हैं. जब नरगिश राजकपूर से प्रेम करती है. और सुनील दत्त बिना भेदभाव के नरगिश से शादी कर लेते है. जब प्रसिद्द कहानीकार नासिरा अपने नाम के साथ शर्मा जोड़ कर नासिरा शर्मा लिखतीं हैं. जब प्रसिद्द साहित्यकार एवं महाभारत के संवाद लेखक राही मासूम रजा की बहु स्वयं को लिखती है पार्वती खान और जब कोई इंदिरा पारसी युवक फिरोज से विवाह करती है,और महात्मा गाँधी उसका समर्थन करते है. तब इस देश की संस्कृति गौरवान्वित होती है और मनुष्यता सम्मानित....

बुद्ध महावीर कबीर के देश में हम किसी एक धर्म की अंगुली पकड़ कर नहीं चल सकते. धर्म का अर्थ ही होता है धारण करना अर्थात जो ग्रहण करने योग्य हो, इस तरह यह बिलकुल व्यक्तिगत वस्तु है. जिस धर्म में जो बात अच्छी है उसे अपनाना बुरा नहीं है. लेकिन कोई कहे की वैष्णव धर्म ही महान है या इस्लाम धर्म सर्वश्रेष्ठ है. तो आज के युग में यह बात स्वीकार योग्य नहीं है.

कोई सा भी धर्म न तो बड़ा है.और न छोटा . यदि इसलाम शांति और अमन की बात करता है.तो उपनिषद भी बसुधैव कुटुम्बकम और सत्यमेव जयते का उदघोष करते हैं. असल में सारा झगडा गलत तालीम दूषित राजनीति, फिरकेपरस्ती का है. जिन लोगों के गले में धर्म के ढोल टंगे हुए हैं. वे कहीं न कहीं किसी राजनीतिक दल से जुड़े हुए हैं या धार्मिक गुटबंदी और फिरकापरस्ती के शिकार हैं...

मेरे एक ब्लोगर मित्र ने एक बहुत प्यारी बात कही है. कि "आप अपने धर्म का प्रचार करें, उससे हम भी कुछ सीखेंगे लेकिन दुसरे धर्म को नीचा दिखा कर नहीं. " यदि आपको धर्म की बुराइयाँ ही गिनानी हैं तो पहले अपने धर्म का सूक्ष्म अवलोकन करें यदि यह संभव नहीं है. तो अपने समाज की ही छानबीन करलें यह बात सभी धर्मों के लिए समान रूप से है..

फिल्म लेखक सलीम खान का घर भारतीय परिवार का एक आधुनिक फार्मूला है. उनके परिवार में सभी धर्म के लोग शामिल हैं . सलीम के ही शब्दों में " क्या कठमुल्ले और धर्मांध लोग जानते हैं कि सलमान की माँ एक महाराष्ट्रियन हिन्दू है. और सलमान का एबिलिकल कार्ड उसकी माँ से जुडा हुआ है! उसकी माँ अपने घर से रुखसत लेकर इस घर में आई तो जरूर, मगर अपने माँ बाप, भाई बहन , रिश्तेदार और अपने धर्म को छोड़ कर नहीं. सलमान ने अपनी माँ के धर्म की इज्जत करना उसकी गोद में ही सीखा है. यही हर मजहब सिखाता है. वह आगे कहते हैं..... मुझसे किसी ने पूछा आप लोगों का आखिर मजहब क्या है? मैंने बताया कि जब कार का जोर से ब्रेक लगता है और हम किसी खतरनाक एक्सीडेंट से बाल बाल बच जाते है,तो मेरे मुंह से बेसाख्ता निकलता है- अल्लाह खैर, मेरी बीवी के मुंह से निकलता है अरे देवा! और मेरे बच्चों के मुंह से साथ साथ निकलता है, ओह, शिट! यही हमारी फेमिली के नेशनल इंटीग्रेशन का एक छोटा सा फार्मूला है.."

क्या ऐसा ही फार्मूला पूरे देश में लागू नहीं हो सकता????

Saturday, October 3, 2009

खुशवंत सिंह का रामराज्य

खुशवंत सिंह हिंदी के लेखक नहीं हैं। लेकिन बचपन से मैं उन्हें हिंदी में पढता आया हूँ. जब भी उन्हें हिंदी चैनलों पर सुना हिंदी में बोलते हुए पाया. उनसे एक बार पूछा गया कि आप हिंदी में क्यों नहीं लिखते तो उनका जवाब था कि मुझे हिंदी में लिखने का शऊर नहीं है , यानि हिंदी में लिखने की कला से वह अनभिज्ञ हैं.

खुशवंत सिंह मुझे बेहद पसंद हैं...कारण? वह थोडा अलग हट कर सोचते हैं॥ बंधी बंधाई परिपाटी पर नहीं चलते हैं। उनके विचार उन्मुक्त हैं.. वह मनुष्यता और उसके जीने के ढंग को प्राथमिकता देते हैं। उनका लेखन भेदभाव रहित है। वह विद्रोही हैं. ताजी हवा का झोंका हैं. वह स्वयं को नास्तिक कहते हैं. लेकिन वह नास्तिक नहीं हैं, वह आस्तिक भी नहीं हैं. वह ईश्वर पर विश्वाश नहीं करते लेकिन जो बात अनुभव में आ जाये वह बिना लाग लपेट के सीधा अभिव्यक्त करते हैं....

वह सेक्स पर खुल कर बोलते हैं और इस धरती पर रहकर परिंदों की तरह आसमान में स्वच्छंद विचरण करते हैं। एक ही ढर्रे पर चलने वाले समाज के लिए वह "मिसफिट" हैं। छद्म नैतिकता के आवरण में दुबके समाज के लिए उनके विचार हानिकारक हो सकते हैं... ९४ साल की उम्र में भी उनके विचार युवा मानसिकता को मात देने वाले हैं... नए हिंदुस्तान के बारे में उनके विचार एक दम बिंदास हैं... उनके ही शब्दों में ....

"अपने सपनों के भारत के बारे में कई बातें कहना चाहता हूँ। सबसे पहले तो मैं चाहूँगा कि भारत धर्म, शकुन विचार, और जन्मपत्री तथा ज्योतिष जैसी चीजों में अन्धविश्वाश करना छोड़ दे। देश परम्पराओं के मुर्दा बोझ, स्त्रियों से भेदभाव, पर्दा, संयुक्त परिवार के बोझ और आयोजित विवाहों से स्वतंत्र हो जाये।


मेरी राय में विवाह की संस्था अनुपयोगी हो चुकी है। अब बिना बाधा के और आसानी से तलाक पाने की सुविधा होनी चाहिए। सेक्स का आनंद लेने की अधिक स्वतंत्रता होनी चाहिए। तथा शराब और नशीले पदार्थों पर प्रतिबन्ध नहीं रहना चाहिए. लोग अपना जीवन किस तरह जीना चाहते हैं ये पूरी तरह उन पर छोड़ दिया जाए...

दमन कारी कानूनों और लोगों के निजी मामलों में सरकारी हस्तक्षेप में आजादी हो... किसी प्रकार की हिंसा का भय न रहे... न तो सरकार से और न किसी व्यक्ति से, ताकि लोग जिन जंजीरों में बंधे हुए हैं, उनसे आजाद हो जाएँ तथा उत्पादनशील, रचनात्मक, स्वतंत्र हो सकें... मैं तो ऐसे रामराज्य का ही स्वप्न देखता हूँ... "
(द ' इल्लसट्रटिड वीकली' के एक पुराने अंक से तारिका में प्रकाशित एक स्तंभ से साभार.....)



Saturday, September 26, 2009

आस्तिक और नास्तिक एक ही थैली के चट्टे बट्टे

खलील जिब्रान की एक लघु कथा है.....
अफकार नामक एक प्राचीन नगर में किसी समय दो विद्वान् रहते थे. उनके विचारों में बड़ी भिन्नता थी. एक दुसरे की विद्या की हंसी उड़ाते थे. क्योंकि उनमे से एक आस्तिक था और दूसरा नास्तिक.
एक दिन दोनों बाजार में मिले और अपने अनुयायियों की उपस्थिति में ईश्वर के अस्तित्व पर बहस करने लगे घंटों बहस करने के बाद एक दुसरे से अलग हुए.
उसी शाम नास्तिक मंदिर में गया और बेदी के सामने सिर झुका कर अपने पिछले पापों के लिए क्षमा याचना करने लगा। ठीक उसी समय दूसरे विद्वान ने भी, जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता था, अपनी पुस्तकें जला डालीं, क्योंकि अब वह नास्तिक बन गया था...

ईश्वर है या नहीं इस तरह की बहस अनंत है, ईश्वर है, के भी हजार उदाहरण हैं और ईश्वर नहीं है के भी हजार उदाहरण हैं। कोई किसी से कम नहीं है. न नास्तिक और न ही आस्तिक. इसी कारण जब बुद्ध से पूछा जाता था कि ईश्वर है या नहीं तो बुद्ध मौन रह जाया करते थे॥

क्योंकि बहस बेमानी है। नास्तिक का मतलब है जिसने मानने से इंकार कर दिया. और आस्तिक वह है जो मान कर बैठा है कि ईश्वर है. वह ग्रंथों से हजार उदाहरण ढूंढ कर आपके सामने रख देगा . देखो! इस ग्रन्थ में लिखा है. लेकिन उसका अपना कोई अनुभव नहीं है उसकी अपनी कोई खोज नहीं है उसे सिखा दिया गया है, कि ईश्वर है, उसकी पूजा करो अब वह दिमाग को एक तरफ रख कर ईश्वर की पूजा करने लगता है. कुछ दिनों में यह आदत बन जाती है.

ओशो आस्तिक और नास्तिक दोनों को खूब छकाते थे । यदि कोई कहता कि ईश्वर है, तो वह कहते थे नहीं है, और यदि कोई कहता था कि ईश्वर नहीं है तो वह कहते थे कि है, तुम भूल कर रहे हो.

असल में बात अस्तित्व की होनी चाहिए। अस्तित्व महत्त्व पूर्ण है, उसको समझा जाये। वैज्ञानिक ढंग से, दार्शनिक रूप से, भीतर की यात्रा करके, किसी भी तरह, रास्ते कई हो सकते हैं.

दूसरों के शब्द हो सकते हैं, लेकिन अनुभव स्वयं का ही होगा. अपना ही दीया स्वयं बनकर जो ईश्वर सम्बन्धी विचार आयेगा. वह सांसारिक ईश्वर नहीं होगा, वह तुलसी के राम की तरह अवतार भी नहीं होगा. वह पूजा पाठ वाला ईश्वर कदापि नहीं हो सकता।

उस ईश्वर को आइंस्टाइन और कार्ल मार्क्स भी पूरी तरह से स्वीकार करेंगे वह विचार अस्तित्व से एकाकार हो जायेगा।

अहोभाव! जिस रोज ह्रदय में आ गया, हम ईश्वर है या नहीं इसके पचडे में नहीं पड़ेंगे। गाँधी और कबीर का राम तुलसी का राम कभी नहीं था . क्योंकि तुलसी के राम मनुष्यों की तरह व्यबहार करते हैं. ईश्वर का मानवीकरण नहीं हो सकता. समग्र को अल्प में कैसे कैद किया जासकता है. मानव का एश्वारिय्करण हो सकता है. मनुष्य में ही भगवान बनने की प्रबल सम्भावना है।

आलावा इसके ईश्वर तो एक शब्द मात्र है. जो अपनी सुबिधा के लिए मनुष्य ने गढा है. अन्यथा तो वह परम उर्जा ही है. उस परम उर्जा को समझना ही अस्तित्व को पा लेना है।
इस परम उर्जा को समझने के लिए खलील जिब्रान की एक लघु कथा बहुत उपयोगी है. यहाँ प्रस्तुत है......

प्राचीन काल में जब मेरे होंट पहली बार हिले तो मैंने पवित्र पर्वत पर चढ़ कर ईश्वर से कहा : "स्वामिन! में तेरा दास हूँ. तेरी गुप्त इच्छा मेरे लिए कानून है. में सदैव तेरी आज्ञा का पालन करूंगा."
लेकिन ईश्वर ने मुझे कोई जबाव नहीं दिया. और वह जबरदस्त तूफान की तरह तेजी से गुजर गया.
एक हजार वर्ष बाद में फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और ईश्वर से प्रार्थना की," परमपिता में तेरी सृष्टि हूँ, तूने मुझे मिटटी से पैदा किया है और मेरे पास जो कुछ है, सब तेरी ही देन है."
किन्तु परमेश्वर ने फिर भी कोई उत्तर न दिया और वह हजार हजार पक्षियों की तरह सन्न से निकल गया.
हजार वर्ष बाद में फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और ईश्वर को संबोधित कर कहा," हे प्रभु में तेरी संतान हूँ, प्रेम और दया पूर्वक तूने मुझे पैदा किया है. और तेरी भक्ति और प्रेम से ही में तेरे साम्राज्य का अधिकारी बनूंगा .'
लेकिन ईश्वर ने कोई जबाव नहीं दिया और एक ऐसे कुहरे की तरह, जो सुदूर पहाडों पर छाया रहता है, निकल गया
एक हजार वर्ष बाद मैं फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और परमेश्वर को संबोधित करके कहा:
मेरे मालिक! तू मेरा उद्देश्य है और तू ही मेरी परिपूर्णता है. मैं तेरा विगत काल और तू मेरा भविष्य है.मैं तेरा मूल हूँ और तू आकाश में मेरा फल है. और हम दोनों एक साथ सूर्य के प्रकाश में पनपते हैं. "
तब ईश्वर मेरी तरफ झुका और मेरे कानों में आहिस्ता से मीठे शब्द कहे और जिस तरह समुद्र अपनी और दौड़ती हुई नदी को छाती से लगा लेता है उसी तरह उसने मुझे सीने से लिपटा लिया.
और जब में पहाडों से उतर कर मैदानों और घाटियों में आया तो मैंने ईश्वर को वहां भी मौजूद पाया ...

Tuesday, September 22, 2009

दक्षिण पूर्व एशिया की ब्लोगिंग खतरे में

कल्पना कीजिये आपने सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ एक जोरदार लेख लिखा, और पोस्ट कर दिया.
आप बड़े खुश हो रहे होंगे, अपनी स्वतंत्र विचारधारा और सोच पर...... थोडी देर बाद आपके घर पुलिस पहुँच जाती है, और आप जेल में डाल दिए जाते हैं ।
आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली जाती है।

जी हाँ, "दी वाल स्ट्रीट जर्नल" समाचार पत्र के अनुसार नेट पर पहरे बिठाये जाने लगे हैं..और दक्षिण पूर्वी एशिया में इसकी शुरुआत हो चुकी है।

थाईलैंड वियतनाम , मलेशिया आदि देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है.
ब्लोगर्स को धमकियाँ दी जा रही है., उन्हें जेलों में डाला जा रहा है,...

मलेशिया में औपनिवेशक काल के आन्तरिक सुरक्षा कानून को लागू कर दिया है, जिसके कारण किसी भी ब्लोगर को
बिना किसी मुकद्दमे के दो साल तक जेल में रखा जा सकता है ...
यही हाल थाईलैंड का है. वहां 'कंप्यूटर अपराध कानून' लागू किया है, ब्लोगर्स और शाही परिवार के विरुद्ध बोलने वालों की धरपकड़ जारी है. यह हवा वियतनाम और चीन में भी फैल रही है...

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक निराश है. उन्होंने सोचा था कि दक्षिण पूर्व एशिया भी विकसित देशों जैसा उदाहरण पेश करेगा. लेकिन अब उन्हें चिंता है कि यह हवा अन्य देशों के वातावरण को विषाक्त न कर दे...

जहाँ तक भारत का सम्बन्ध है, यहाँ भी तालिवानी मानसिकता के लोग कम नहीं है. और इस मानसिकता को भुनाने वाले नेता भी अपने विकराल रूप में जीवित है।

फिल्मों पर सेंसर ऐसी ही मानसिकता का एक छोटा सा उदाहरण है. यहाँ कई बार पत्रकारों की लेखनी पर लगाम कसने की असफल कौशिश की गई।

सलमान रुश्दी की 'सैटेनिक वर्सेस' किताब पर सबसे पहले भारत में ही प्रतिबन्ध लगाया गया था. आश्चर्य की बात यह है, कि उस वक्त पाकिस्तान में इस पुस्तक पर प्रतिबंध नहीं था, आयतुल्ला खुमैनी के फतवे का असर भारत में सर्वाधिक था....

जसबंत सिंह की पुस्तक पर प्रतिबंध तालिबानी मानसिकता का एक अन्य उदाहरण है. भारत में धार्मिक लोगों की भावनाएं इतनी नाजुक हैं, कि सत्य के एक छोटे से कंकर से चकनाचूर हो जाती हैं. किसी सत्य को बयान करने वाली पेंटिंग, उपन्यास या कोई अन्य कृति पर हुडदंगिये बेशर्मी की हद तक चले जाते हैं।

हुडदंगियों और सरकार की गलत नीतियों के कारण हम तसलीमा नसरीन जैसी आतंकवाद के खिलाफ लड़ने वाली लेखिका को अपने विशाल ह्रदय हिंदुस्तान में थोडी सी जगह नहीं दे पाए....

भला हो उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में बैठे परम सम्मानीय न्यायधीशों का जिनके कारण इस देश का पूर्ण तालिवानी करण नहीं हो पाया ....

हालाँकि उन ब्लोगर्स को चिंता करने की जरूरत नहीं है, जो कि सॉफ्ट ब्लोगिंग को पसंद करते हैं और नितांत व्यक्तिगत हैं. लेकिन सामाजिक बदलाव और राजनितिक और धार्मिक नेतागिरी के खिलाफ बोलने वाले ब्लोगर्स को एक जुट हो कर रहना होगा...

आपका क्या विचार है? क्या भारत में कभी ये नौबत आ सकती है. ? उस स्थिति में हमें क्या करना होगा? पूरा समाचार जानने के लिए
यहाँ क्लिक करें

Saturday, September 19, 2009

समाज से बहिष्कृत अब ब्लॉग दुनिया में

न उम्र की सीमा हो न जन्म का हो बंधन
जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन
यह गीत एक ज़माने में सबसे अधिक सुना गया था
जगजीत सिंह की रेशमी आवाज ने और इस गीत में लिखी पंक्तियों ने लोगों का दिल जीत लिया. यह गीत आज भी कर्णप्रिय है, और निश्चित रूप से कल भी रहेगा.
इसमें लिखी पंक्तियों को सुनकर लोगों का मनमयूर नाच उठता है. क्या बात लिखी है "न उम्र की सीमा हो न जन्म का हो बंधन" वाकई में मन प्रेम करने को मचल जाता है...

किसी प्रसिद्द कवि ने कहा है कि 'हिंदुस्तान में प्यार के मामले में सिर्फ थ्योरी चलती है. हम इस गीत में वर्णित पंक्तियों को भी थ्योरी के रूप में लेते है. और झूम उठते है...
लेकिन असल जिन्दगी में जब कोई प्रेमी ऐसा कदम उठा लेता है, तो हंगामा खडा हो जाता है...
सामाजिक मान मर्यादाएं, इज्जत प्रतिष्ठा दिखाई देने लगती है..
कितने दोगले लोग हैं हम....?

ऐसा ही एक साहसी कदम उठाया था कुछ वर्ष पूर्व पटना में रहने वाले हिंदी के प्रोफेसर श्री मटुक नाथ चौधरी और उनकी शिष्या प्रेमिका जूली ने...
पहले प्रेम हुआ, फिर शादी करली , समाज में भूचाल आ गया. प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रोनिक मीडिया, समाज सेवी संस्थाओं ने अपना झंडा और डंडा बुलंद करने के लिए उनका सामाजिक बहिष्कार किया. मटुक नाथ को प्रेम करने के जुर्म में विश्वविद्यालय ने नौकरी से निकाल दिया, उन्हें पत्थर मारे गए, उनके चेहरे पर कालिख पोती गई, वह समाज के नैतिक बदमाशों द्वारा रातोंरात खलनायक बना दिए गए ...

लेकिन मटुक नाथ और उनकी शिष्या प्रेमिका अपने इरादों पर अडिग रहे और आज खुशहाल जीवन जी रहे हैं..

समाज के मानदंडों के आधार पर जीने वाले लोगों को यह नागवार गुजर सकता है कि अपनी उम्र से लगभग आधी, अपनी शिष्या के साथ कोई प्रेम करे! लेकिन एक स्वतंत्र व्यक्तित्व को इन बातों से कोई प्रयोजन नहीं होता है..

बहरहाल आज इस साहसी जोड़े ने ब्लॉग कि दुनिया में

जूलीमटुक के नाम से कदम रखा है उनका लेखन भी एकदम जीवंत है... में समझता हूँ ब्लॉग दुनिया इनका गर्मजोशी से स्वागत करेगी....

Wednesday, September 16, 2009

ये एक शव्द वाले टिप्पणी बाज

ब्लॉग की दुनिया बड़ी रोचक और कुछ विचित्र भी है. यहाँ श्रेष्ठतम भी लिखा जा रहा है, और कचरा भी परोसा जा रहा है.
किसी रचना पर टिप्पणी करने वाले अधिकांश चिट्ठेकार ही हैं,
कुछ चिट्ठेकार ऐसे भी हैं जो रचनाएं पढने की जहमत नहीं उठाते बिना पढे ही टिप्पणी टपका देते हैं.
ऐसे कुछ नमूने देखिये.....

फलां ने कहा......
उम्दा...

अमुक साहब ने कहा ....
सुन्दर.......

"क" ने कहा ....
नाइस...

वाह! , खूब! , बढ़िया!, आभार... लिखते रहिये... बधाई... सही॥ आदि शव्द ऐसी ही टिप्पणियों के नमूने हैं। असल में इन टिप्पणियों का अभिप्राय सभी समझते हैं। इन्हें अपने ब्लॉग का पता ठिकाना देना होता है, बस।

कुछ चिट्ठेकार इस ताक में रहते हैं कि चिटठा जगत में किस नए मुर्गे का आगमन हुआ ये रचनाकार की प्रोफाइल या उसने ब्लॉग पर क्या लिखा है, इसके चक्कर में नहीं पड़ते ये ब्लोगर्स केवल यू। आर. एल छोड़ने वाले होते हैं. इन्हें टिप्पणीकार नहीं बल्कि टिप्पणीबाज कहना ज्यादा सही होगा क्योंकि ये पांच मिनिट में आठ दस चिट्ठे तो निबटा ही देते होंगे.


मैं अभी मुझ जैसे ही नए ब्लोगर्स की रचनाएं पढ़ रहा था.एक टिप्पणीकार बड़े विचित्र मालुम पड़े बाकायदा दो तीन नए चिट्ठों पर उनकी टिप्पणियाँ पढने को मिलीं सभी पर उनकी टिप्पणियाँ एक जैसी थीं. हालाँकि जिस रचना पर वह टिप्पणी दे रहे थे वह काफी प्रभावपूर्ण रचना थी.
एक आकर्षक सुन्दर कविता पर उनकी टिप्पणी देखिये...

"आपने जो वर्ड वेरिफिकेशन लगा रखा है. उसे हटा दें. वर्ड टाइप करने में बड़ी परेशानी होती है... "
आगे कैसे वर्ड वेरिफिकेशन हटाया जाता है उसका पूरा विवरण था.

अब ऐसे चिट्ठेबाजों को सुन्दर, असुंदर कृति से कोई विशेष लगाव नहीं होता है. ये टिप्पणी कार सीधे टिप्पणी के बटन पर प्रहार करते हैं और देखते हैं कि वर्ड वेरिफिकेशन है की नहीं, अब यदि है, तो " तेरी ये हिम्मत! अभी मजा चखाता हूँ; खा मेरी टिप्पणी !" और पहले से सहेज कर रखी टिप्पणी को कापी किया, चिपका दिया ...!
और बेचारा नया ब्लोगर अपने सारे काम छोड़ कर वर्ड वेरिफिकेशन हटाने की गुत्थी में उलझ जाता है.....

मैं धुरंधर और लिक्खाड़ चिट्ठेकारों की बात नहीं कर रहा हूँ । नया ब्लोगर कुछ नया लिख देता है, लेकिन वह खुद कन्फ्यूज होता है.'ठीक ठाक है की नहीं यार! एक तो पहले से ही भयानक कन्फ्यूजन, दूसरे छपने के बाद टिप्पणियाँ , सुन्दर! वाह! खूब! लिखते रहिये अब ब्लोगर अपना नया पुराना सारा कचरा पाठकों के सामने परोस देता है।

ठीक है साहब! आप बहुत अच्छा लिखतें हैं । आप बहुत कुछ हैं. तो टिप्पणियों में कुछ तो लिखिए वैसे भी अपनी हिंदी भाषा में लिखने बोलने का काफी चलन है किसी पुस्तक की भूमिका का शीर्षक "दो शव्द" होता है, और लेखक दो तीन पेज भर देते हैं कोई वक्ता दो शव्द कहना चाहता है और पूरा एक घंटा ले लेता है. तो आप टिप्पणी के लिए दो चार शव्द लिखने में क्यों कंजूसी करते हैं?


यदि रचना सुन्दर है तो क्यों? यदि उसमे कुछ कमी है तो क्यों ?इस क्यों शव्द पर ही थोडा विचार विमर्स कर लीजिये वैसे यह "क्यों" शव्द बड़ा आध्यात्मिक शव्द है, इस शव्द में जीवन के बड़े भारी रहस्य छुपे हैं. इस शव्द का उत्तर खोजने में दिल और दिमाग दोनों का उपयोग करना पड़ता है.

एक शव्द की टिप्पणी देकर हम एक गलत परम्परा की शुरुआत कर रहे हैं, ब्लॉग की दुनिया के लिए शायद ये लाभदायक न हो।

हमें मालूम है कि हम सभी पाठकों लेखकों को अपनी चोखट, चौपाल पर बुलाना चाहते हैं। यह स्वाभाविक है लेकिन आमंत्रण पत्र थोडा मित्रवत हो तो क्या कहना.

एक सच्चा मित्र चापलूसी नहीं करता , वह अपने मित्र की प्रशंसा करता है. लेकिन साथ ही उसकी कमजोरियों को स्वस्थ आलोचना के साथ उसके सामने लाता है .

Wednesday, September 2, 2009

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान हूँ

हमारा इंडिया चमक रहा है... शायनिंग इंडिया... प्रोग्रेसिव इंडिया...वैभव विलास से परिपूर्ण इंडिया...
यहाँ ऊँची ऊँची अट्टालिकाएं हैं. धन का मादक नृत्य है और अधिक धन कमाने की लालसा है.
प्रकृति से विरत कंक्रीट के घने जंगलों में प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ है....
रंगी पुती आधुनिक अप्सराएँ हैं, प्रेम को कालकोठरी में कैद करने वाले सेक्स के पुजारी हैं...यहाँ पैसा है, प्रतिष्ठा है और अपने अपने अंहकार हैं...

एक गरीव भारत भी है ठीक दुष्यंत की गजल के एक शेर की तरह.....
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला की हिंदुस्तान हूँ॥

जहाँ गरीबी है, फटे चीथड़े हैं. और जानवरों का सा जीवन है. झोपड़ पट्टियाँ है, कचरे में से प्लास्टिक बीनते अबोध मासूम कृशकाय बच्चे भी हैं.......

कबाड़खाने में तब्दील रेल के डिब्बों में अपना आशियाना बनाये हुए ऐसी मांएं भी हैं। जिन्हें अपने बच्चों के पिता का पता नहीं है, जो एक रोटी की खातिर अपने शरीर का शोषण करवाने के लिए मजबूर हैं...

बीमारी है, अंधविशवास हैं, राजनीती की चक्की में पिसकर अपना ही घर जलाने वाले मध्यमवर्गीय युवा हैं। साम्प्रदायिक लपटें हैं. धर्म के धंधेबाजों का भयानक जाल है....

अपनी ही समस्याओं से जूझता प्रतिभा संपन्न युवा वर्ग है। नशे की आग में खुद को झोकती समाज द्वारा भ्रमित की गयी युवा पीढी है. भेदभाव की भट्टी में जलती हुयीं शोषित महिलायें हैं....

संवेदनाओं का देश
यहाँ बुद्ध हैं, महावीर हैं, मीरा हैं, कृष्ण हैं, कबीर हैं, राबिया हैं, ओशो रजनीश हैं, जिद्दु कृष्णमूर्ति हैं, धन की लालसा पर विजय प्राप्त करने वाली और कला को नए पंख देने वाली परम चेतनाएं भी हैं ऐसा प्रबुद्ध वर्ग भी है, जो दूसरों के आंसुओं से द्रवित होता है, और अपनी विकल संवेदनाओं से मनुष्य जीवन को जीने की उमंग से परिपूरित कर देता है, लेकिन ऐसी चेतनाएं कितनी हैं, स्वयं को बदलो तो दुनिया बदल जाती है,किन्तु क्या हम स्वयं को बदलने को तैयार हैं....???

Tuesday, August 25, 2009

मंटो साहब आपकी कहानी 'बू' तो बड़ी बदबू फैला रही है...!

मित्रों के आग्रह पर लगा की मंटो के बारे में और चर्चा की जाए वैसे इस अनुभवी रूह के बारे में जानना और पढना अत्यंत रोमाचक और रोचक है। मंटो का सफर केवल ४२ वर्ष रहा. अलविदा कहने से पहले के १९ वर्षों के सफर में हमें उनसे २३० कहानियां ६७ रेडियो नाटक २२ शव्द चित्र, और ७० लेख मिले.मंटो के १४ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए।

इन संग्रहों में स्याह हाशिये, नंगी आवाजें ,खोल दो , टोबा टेकसिंह, बू, धुवां, काली शलवार आदि चर्चित कहानियां शामिल हैं। छद्म नैतिकता की आढ़ में इन कहानियों को समाज द्वारा अश्लील घोषित किया गया और मंटो पर मुक़दमे चलाये गए। मंटो इन मुकदमों से मानसिक रूप से बहुत आहत हुए लेकिन उनके क्रन्तिकारी तेवर कभी नहीं बदले।
इन मुकदमों से सम्बंधित एक दिलचस्प घटना है। एक व्यक्ति ने मंटो से कहा "भाई मंटो आपकी कहानी 'बू' तो बड़ी बदबू फैला रही है. मंटो का जवाब था तो आप फिनाइल लिख दें" मंटो से अक्सर पूछा जाता आप क्यों लिखते है.....? मंटो इसका बहुत संजीदगी से जवाब देते थे उन्ही के शव्दों में ....
यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूँ... मैं क्यों पीता हूँ... लेकिन इस दृष्टि से मुख़तलिफ है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च करने पड़ते हैं और जब लिखता हूँ तो मुझे नकदी की सूरत में कुछ खर्च करना नहीं पड़ता. पर जब गहराई में जाता हूँ तो पता चलता है कि यह बात ग़लत है इसलिए कि मैं रुपए के बलबूते पर ही लिखता हूँ.लोग कला को इतना ऊँचा रूतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें असमान से मिला देते हैं. मगर क्या यह हक़ीक़त नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज़ एक सूखी रोटी की मोहताज है?मैं लिखता हूँ इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है. मैं लिखता हूँ इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूँ ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूँ.

रोटी और कला का संबंध प्रगट रूप से अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए कि ख़ुदाबंद ताला को यही मंज़ूर है. वह ख़ुद को हर चीज़ से निरपेक्ष कहता है-यह गलत है. वह निरपेक्ष हरगिज नहीं है. इसको इबादत चाहिए. और इबादत बड़ी ही नर्म और नाज़ुक रोटी है बल्कि यूँ कहिए, चुपड़ी हुई रोटी है जिससे वह अपना पेट भरता है।

मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज़ खाविंद से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ़ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए ज़र्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत अपने खाविंद से लड़कर और खुदकशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं खाविंद को दो घंटे सख़्त परेशानी की हालत में देखता हूँ तो मुझे दोनों से एक अजीब व ग़रीब क़िस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है।

किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ ज़रूर खींचेगा जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ो लड़कियाँ जान देती हैं लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीड़ित वाशिंदा.......

चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मिनान से सो जाती है, मेरे अफ़सानों की हीरोइन नहीं हो सकती। मेरी हीरोइन चकले की एक टखयाई रंडी हो सकती है. जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने आ रहा है. उसके भारी-भारी पपोटे, जिनमें वर्षों की उचटी हुई नींद जम गई है, मेरे अफ़सानों का मौजूँ (विषय) बन सकते हैं. उसकी गलाजत, उसकी बीमारियाँ, उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ-ये सब मुझे भाती हैं-मैं उसके मुताल्लिक लिखता हूँ और घरेलू औरतों की नफ़ासत पसंदी को नज़रअंदाज कर जाता हूँ.........

मैं जानता हूँ कि मेरी शख्सियत बहुत बड़ी है और उर्दू साहित्य में मेरा बड़ा नाम है। अगर यह ख़ुशफ़हमी न हो तो ज़िदगी और भी मुश्किल बन जाए. पर मेरे लिए यह एक तल्ख़ हक़ीकत है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूंढ नहीं पाया हूँ. यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है. मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ.

मुझसे पूछा जाता है कि मैं शराब से अपना पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेता? मैं अपनी जिंदगी का तीन-चौथाई हिस्सा बदपरहेजियों की भेट चढ़ा चुका हूँ। अब तो यह हालत है- मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ.........मैं समझता हूँ कि जिंदगी अगर परहेज़ से गुजारी जाए तो एक क़ैद है. अगर वह बदपरहेजियों से गुज़ारी जाए तो भी एक क़ैद है. किसी न किसी तरह हमें इस जुराब के धागे का एक सिरा पकड़कर उधेड़ते जाना है और बस.

और अंत में धर्म के दोगलेपन को उजागर करती मंटो की एक लघुकथा ...।

घाटे का सौदा

दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लड़कियों में से एक चुनी और बयालीस रुपये देकर उसे ख़रीद लिया.रात गुज़ारकर एक दोस्त ने उस लड़की से पूछा : “तुम्हारा नाम क्या है?”लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भिन्ना गया : “हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मज़हब की हो....!”लड़की ने जवाब दिया : “उसने झूठ बोला था!”यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा : “उस हरामज़ादे ने हमारे साथ धोखा किया है.....हमारे ही मज़हब की लड़की थमा दी......चलो, वापस कर आएँ.....!”

Saturday, August 15, 2009

कृशन चंदर के कुछ व्याकुल शब्द आवारा मंटो की मौत पर

एक अनोखी घटना घटी है। मंटो मर गया है। यों तो वह एक अरसे से मर रहा था। कभी सुना कि वह पागलखाने में है। कभी सुना कि वह ज्यादा शराव पीने से अस्पताल में पड़ा है। कभी सुना कि उसके यार दोस्तों ने भी उसका साथ छोड़ दिया है। कभी सुना कि वह और उसके बच्चे फाकाकशी कर रहे हैं। बहुत सी बातें सुनी हमेशा बुरी बातें सुनीं, लेकिन विश्वाश नहीं हुआ ; क्योंकि इस समय भी उसकी कहानियाँ बराबर छपती रहीं; अच्छी कहनियाँ भी और बुरी कहानियाँ भी; जिन्हें पढ़कर मंटो का मुंह नोचने को जी चाहता था , ऐसी कहानियाँ भी जिन्हें पढ़कर मुहं चूमने को जी चाहता था.....

मगर आज रेडियो पाकिस्तान ने यह ख़बर सुनाई कि मंटो धड़कन बंद हो जाने से चल बसा तो दिल और दिमाग चलते चलते एक क्षण के लिए रुक गए .....

मेरी आँख में आंसू का एक कतरा भी नहीं है, मंटो को रुलाने से अत्यन्त घृणा थी। आज मैं उसकी याद में आंसू बहाकर उसे परेशान नहीं करूँगा आहिस्ते से अपना कोट पहन लेता हूँ और घर से बाहर निकल जाता हूँ।

सब जगह उसी तरह काम हो रहा है। आल इंडिया रेडियो भी खुला है और होटल का बार भी और उर्दू बाजार भी; क्योंकि मंटो एक बहुत मामूली आदमी था। वह एक गरीव कहानीकार था, वह कोई मंत्री नहीं था जो उसकी शान में झंडे झुका दिए जाते। आल इंडिया रेडियो भी खुला है; जिसने कि सैकडो बार उसकी कहानियो के ध्वनी नाट्य रूपांतरण किये हैं, उर्दू बाजार भी खुला है, जिसने उसकी हजारों किताबें बेचीं हैं और आज भी बेच रहे हैं। आज मैं उन लोगों कहकहा लगाकर देख रहा हूँ, जिन्होंने मंटो से हजारों रुपये कि शराव पी है...

लोगों ने गोर्की के लिए अजायब घर बनाये मूर्तियाँ बनाईं ,शहर बनाये और हमने मंटो पर मुक़दमे चलाये , उसे भूखा मारा उसे पागल खाने पहुँचाया , उसे अस्पतालों में सड।या और यहाँ तक मजबूर कर दिया कि वह किसी इंसान को नहीं शराब की बोतल को अपना दोस्त समझने को मजबूर हो जाये . हम इंसानों के नहीं मकबरों के पुजारी हैं . दिल्ली में मिर्जा गालिव की फिल्म चल रही है, इस फिल्म की कहानी इसी दिल्ली के मोरी गेट में बैठ कर मंटो ने लिखी थी ...मंटो दुबारा पैदा नहीं होगा यह मैं भी जानता हूँ और राजेन्द्र सिंह बेदी भी अस्मत चुगताई भी , ख्वाजा अहमद अब्बास भी और उपेन्द्रनाथ अश्क भी ।

' मन मुक्ता ' से साभार
ये पंक्तियाँ जुलाई १९५६ में छपी मंटो की किताब हवा के घोडे से ली गयीं हैं. इस पुस्तक में छपे कृशन चंदर के बेचैन करने वाले शब्द क्या आज भी उतने ही नए नहीं हैं? जबकि मंटो और कृशन चंदर को गुजरे एक जमाना बीत गया हैं .यथार्थ ज्यों का त्यों है.

Sunday, August 2, 2009

कन्यादान योजना एक अदूरदर्शी योजना

मध्यप्रदेश सरकार आजकल कन्यादान योजना चला रही है। प्रथम तो इस योजना के नामकरण पर ही प्रश्नचिन्ह लगना चाहिए .कन्यादान शब्द हिंदू समाज के लिए कलंक से ज्यादा नहीं है। हिंदू धर्म में दान का सर्वाधिक महत्व है जरूरतमंद को दान देना या उसकी मदद करना बुरा नही है। लेकिन हमें यह समझना चाहिए की दान वस्तुओं का होता है। चूंकि समाज में सदियों से स्त्री को भी वस्तु के रूप देखा गया है। इसलिए लोग कन्यादान करते हैं। अब यह कार्य मध्यप्रदेश सरकार ने अपने हाथों में लेलिया है।

अब यहाँ के नेता अधिक से अधिक वयस्क,अवयस्क लड़के,लड़कियों को इकठ्ठा करते हैं। उनकी शादियाँ करवाते हैं। कन्यादान करते हैं और पुण्य कमाते हैं। इसतरह अब मध्यप्रदेश के नेताओं को स्वर्ग मिलना लगभग तय हो गया है।

ये प्रश्न पूछा जाना चाहिए की क्या मध्यप्रदेश सरकार ने गरीब लड़केलड़कियों की शादी करवाने का ठेका ले रखा है? वैसे ही गरीब परिवार दो वक्त की रोटी बड़ी मुश्किल से कमापाता है। एक अन्य सदस्य बढ़ जाने से क्या उनकी गरीबी दूर हो जायेगी ?

यह मूर्खतापूर्ण योजना भविष्य में खतरे की घंटी है। क्योंकि ये विवाहित जोड़े आठ दस माह में दो से तीन होने वाले है। वैसे ही हमारे अनेक राज्य जनसँख्या के बोझ से दबे जारहे हैं। मध्यप्रदेश की कुल जनसँख्या ही थाईलैंड की जनसँख्या के बराबर है। क्या जनसँख्या की वृद्धिदर को देखते हुए इसतरह की योजनायें लाभकारी हैं? नेता वोटबेंक के चक्कर में इसप्रकार की योजनायें लागू करते रहते है इसका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है। आपके क्या विचार है?

Wednesday, July 29, 2009

खुश रहने का ब्रांडेड तरीका -दूसरों पर शासन करने की प्रवृति से बाज आयें

हमारा समाज दिनोंदिन प्रगति के साथ-साथ इतना जटिल होता जा रहा है की सरल और निष्कपट जीवन जीना दुर्लभ प्रतीत होने लगा है। वह ख़ुद तो परतंत्र है ही दूसरों को भी इसी राह पर धकेलना चाहता है। नेता जनता पर एक छत्र राज्य चाहता है। गुरु अपने शिष्यों को जकड कर रखता हैकहीं पति अपनी पत्नी पर शासन करता है तो कहीं पत्नियाँ पति पर रौब झाड़ती हैं। कहीं पत्नी परेशान है तो कहीं पति प्रताडित है। कहीं पिता अपने पुत्रों पर शिकंजा कसे बैठा है, तो कहीं घर की मम्मियां अपनी लड़कियों को संस्कृति और नैतिकता का पाठ पढ़ा कर और प्रेम से वंचित कर चूला चौका सँभालने और गृहकार्य में दक्ष विवाह योग्य कन्या रुपी प्रोडक्ट तैयार करने में जुटी हैं। लगता है हर व्यक्ति ने एक दूसरे की स्वतंत्रता का अपहरण करने का जिम्मा ले रखा हैसंयुक्त परिवारों में किसी बड़े बुजुर्ग का सिक्का चलता है। और परिवार के अन्य सदस्यों की जुर्रत भी नहीं होती की वह उनकी किसी । ग़लत बात की अवहेलना कर सके। अवहेलना करना उनकी प्रतिष्ठा और मान सम्मान का सवाल वन जाता है।

शासित होना कोई नहीं चाहेगा जो पंख उड़ान भरने के लिए हैं उन्हें कटवाना कौन चाहेगा। अपनी स्वतंत्रता सभी को प्रिय होती है। एक प्रबुद्ध व्यक्ति किसी पर भी शासन नहीं करता है। इसके इतर शासन करने वाला व्यक्ति यह अपेक्षा करेगा की उसके आदेश का पालन किया जाए। अब यदि कोई अन्य उसके आदेश की अवहेलना करता है तो क्या होगा ? निस्संदेह वह क्रुद्ध हो जाएगा, हिंसक भी हो सकता है। क्योंकि दूसरों पर आधिपत्य जमाने वाला व्यक्ति कभी सकारात्मक नहीं होता है। किसी की ना सुनना उसे कभी नहीं सुहाता है।

प्रश्न उठता है यह आधिपत्य क्यों? यह शासन क्यों? क्या दो दिन की जिन्दगी में हम बिना दूसरों पर अधिकार किये जियो और जीनो दो की भावना से अपने आपको स्पंदित नहीं रख सकते?दूसरों पर लगाम लगाकर हम ख़ुद को आजाद कैसे रख सकते हैं? लगाम एक ऐसी हथकडी है जहाँ न हथकडी पहनने वाला स्वतंत्र है और न हथकडी पहनाने वाला। लगाम ढीली छोडिये। प्रेम, स्नेह , करुना आदि मानवीय गुणों को आत्मसात कीजिये आप भी खुश रहेंगे ,आपका परिवार भी , आपके मित्र भी।