Saturday, September 26, 2009

आस्तिक और नास्तिक एक ही थैली के चट्टे बट्टे

खलील जिब्रान की एक लघु कथा है.....
अफकार नामक एक प्राचीन नगर में किसी समय दो विद्वान् रहते थे. उनके विचारों में बड़ी भिन्नता थी. एक दुसरे की विद्या की हंसी उड़ाते थे. क्योंकि उनमे से एक आस्तिक था और दूसरा नास्तिक.
एक दिन दोनों बाजार में मिले और अपने अनुयायियों की उपस्थिति में ईश्वर के अस्तित्व पर बहस करने लगे घंटों बहस करने के बाद एक दुसरे से अलग हुए.
उसी शाम नास्तिक मंदिर में गया और बेदी के सामने सिर झुका कर अपने पिछले पापों के लिए क्षमा याचना करने लगा। ठीक उसी समय दूसरे विद्वान ने भी, जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता था, अपनी पुस्तकें जला डालीं, क्योंकि अब वह नास्तिक बन गया था...

ईश्वर है या नहीं इस तरह की बहस अनंत है, ईश्वर है, के भी हजार उदाहरण हैं और ईश्वर नहीं है के भी हजार उदाहरण हैं। कोई किसी से कम नहीं है. न नास्तिक और न ही आस्तिक. इसी कारण जब बुद्ध से पूछा जाता था कि ईश्वर है या नहीं तो बुद्ध मौन रह जाया करते थे॥

क्योंकि बहस बेमानी है। नास्तिक का मतलब है जिसने मानने से इंकार कर दिया. और आस्तिक वह है जो मान कर बैठा है कि ईश्वर है. वह ग्रंथों से हजार उदाहरण ढूंढ कर आपके सामने रख देगा . देखो! इस ग्रन्थ में लिखा है. लेकिन उसका अपना कोई अनुभव नहीं है उसकी अपनी कोई खोज नहीं है उसे सिखा दिया गया है, कि ईश्वर है, उसकी पूजा करो अब वह दिमाग को एक तरफ रख कर ईश्वर की पूजा करने लगता है. कुछ दिनों में यह आदत बन जाती है.

ओशो आस्तिक और नास्तिक दोनों को खूब छकाते थे । यदि कोई कहता कि ईश्वर है, तो वह कहते थे नहीं है, और यदि कोई कहता था कि ईश्वर नहीं है तो वह कहते थे कि है, तुम भूल कर रहे हो.

असल में बात अस्तित्व की होनी चाहिए। अस्तित्व महत्त्व पूर्ण है, उसको समझा जाये। वैज्ञानिक ढंग से, दार्शनिक रूप से, भीतर की यात्रा करके, किसी भी तरह, रास्ते कई हो सकते हैं.

दूसरों के शब्द हो सकते हैं, लेकिन अनुभव स्वयं का ही होगा. अपना ही दीया स्वयं बनकर जो ईश्वर सम्बन्धी विचार आयेगा. वह सांसारिक ईश्वर नहीं होगा, वह तुलसी के राम की तरह अवतार भी नहीं होगा. वह पूजा पाठ वाला ईश्वर कदापि नहीं हो सकता।

उस ईश्वर को आइंस्टाइन और कार्ल मार्क्स भी पूरी तरह से स्वीकार करेंगे वह विचार अस्तित्व से एकाकार हो जायेगा।

अहोभाव! जिस रोज ह्रदय में आ गया, हम ईश्वर है या नहीं इसके पचडे में नहीं पड़ेंगे। गाँधी और कबीर का राम तुलसी का राम कभी नहीं था . क्योंकि तुलसी के राम मनुष्यों की तरह व्यबहार करते हैं. ईश्वर का मानवीकरण नहीं हो सकता. समग्र को अल्प में कैसे कैद किया जासकता है. मानव का एश्वारिय्करण हो सकता है. मनुष्य में ही भगवान बनने की प्रबल सम्भावना है।

आलावा इसके ईश्वर तो एक शब्द मात्र है. जो अपनी सुबिधा के लिए मनुष्य ने गढा है. अन्यथा तो वह परम उर्जा ही है. उस परम उर्जा को समझना ही अस्तित्व को पा लेना है।
इस परम उर्जा को समझने के लिए खलील जिब्रान की एक लघु कथा बहुत उपयोगी है. यहाँ प्रस्तुत है......

प्राचीन काल में जब मेरे होंट पहली बार हिले तो मैंने पवित्र पर्वत पर चढ़ कर ईश्वर से कहा : "स्वामिन! में तेरा दास हूँ. तेरी गुप्त इच्छा मेरे लिए कानून है. में सदैव तेरी आज्ञा का पालन करूंगा."
लेकिन ईश्वर ने मुझे कोई जबाव नहीं दिया. और वह जबरदस्त तूफान की तरह तेजी से गुजर गया.
एक हजार वर्ष बाद में फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और ईश्वर से प्रार्थना की," परमपिता में तेरी सृष्टि हूँ, तूने मुझे मिटटी से पैदा किया है और मेरे पास जो कुछ है, सब तेरी ही देन है."
किन्तु परमेश्वर ने फिर भी कोई उत्तर न दिया और वह हजार हजार पक्षियों की तरह सन्न से निकल गया.
हजार वर्ष बाद में फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और ईश्वर को संबोधित कर कहा," हे प्रभु में तेरी संतान हूँ, प्रेम और दया पूर्वक तूने मुझे पैदा किया है. और तेरी भक्ति और प्रेम से ही में तेरे साम्राज्य का अधिकारी बनूंगा .'
लेकिन ईश्वर ने कोई जबाव नहीं दिया और एक ऐसे कुहरे की तरह, जो सुदूर पहाडों पर छाया रहता है, निकल गया
एक हजार वर्ष बाद मैं फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और परमेश्वर को संबोधित करके कहा:
मेरे मालिक! तू मेरा उद्देश्य है और तू ही मेरी परिपूर्णता है. मैं तेरा विगत काल और तू मेरा भविष्य है.मैं तेरा मूल हूँ और तू आकाश में मेरा फल है. और हम दोनों एक साथ सूर्य के प्रकाश में पनपते हैं. "
तब ईश्वर मेरी तरफ झुका और मेरे कानों में आहिस्ता से मीठे शब्द कहे और जिस तरह समुद्र अपनी और दौड़ती हुई नदी को छाती से लगा लेता है उसी तरह उसने मुझे सीने से लिपटा लिया.
और जब में पहाडों से उतर कर मैदानों और घाटियों में आया तो मैंने ईश्वर को वहां भी मौजूद पाया ...

5 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत सुंदर आलेख। वास्तव में समग्र को अल्प में कैसे कैद नहीं किया जा सकता।
आस्तिक और नास्तिक का भेद ही बेकार है।

L.Goswami said...

वे दोनों विद्वान् वैचारिक दोगलेपन के शिकार थे ..आस्तिकता या नास्तिकता मायने नही रखती ..मायने रखता है चीजों के प्रति सम्यक और सार्थक वैज्ञानिक दृष्टिकोण ..और हाँ विचारों को सही या गलत साबित किया जाना चाहिए व्यक्तित्व को नही ..हम व्यक्तित्व के भ्रम से कब उपर उठेंगे ? समझ नही आता.

प्रवीण said...

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"इस परम उर्जा को समझने के लिए खलील जिब्रान की एक लघु कथा बहुत उपयोगी है. यहाँ प्रस्तुत है......

प्राचीन काल में जब मेरे होंट पहली बार हिले तो मैंने पवित्र पर्वत पर चढ़ कर ईश्वर से कहा : "स्वामिन! में तेरा दास हूँ. तेरी गुप्त इच्छा मेरे लिए कानून है. में सदैव तेरी आज्ञा का पालन करूंगा."
लेकिन ईश्वर ने मुझे कोई जबाव नहीं दिया. और वह जबरदस्त तूफान की तरह तेजी से गुजर गया.
एक हजार वर्ष बाद में फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और ईश्वर से प्रार्थना की," परमपिता में तेरी सृष्टि हूँ, तूने मुझे मिटटी से पैदा किया है और मेरे पास जो कुछ है, सब तेरी ही देन है."
किन्तु परमेश्वर ने फिर भी कोई उत्तर न दिया और वह हजार हजार पक्षियों की तरह सन्न से निकल गया.
हजार वर्ष बाद में फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और ईश्वर को संबोधित कर कहा," हे प्रभु में तेरी संतान हूँ, प्रेम और दया पूर्वक तूने मुझे पैदा किया है. और तेरी भक्ति और प्रेम से ही में तेरे साम्राज्य का अधिकारी बनूंगा .'
लेकिन ईश्वर ने कोई जबाव नहीं दिया और एक ऐसे कुहरे की तरह, जो सुदूर पहाडों पर छाया रहता है, निकल गया
एक हजार वर्ष बाद मैं फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और परमेश्वर को संबोधित करके कहा:
मेरे मालिक! तू मेरा उद्देश्य है और तू ही मेरी परिपूर्णता है. मैं तेरा विगत काल और तू मेरा भविष्य है.मैं तेरा मूल हूँ और तू आकाश में मेरा फल है. और हम दोनों एक साथ सूर्य के प्रकाश में पनपते हैं. "
तब ईश्वर मेरी तरफ झुका और मेरे कानों में आहिस्ता से मीठे शब्द कहे और जिस तरह समुद्र अपनी और दौड़ती हुई नदी को छाती से लगा लेता है उसी तरह उसने मुझे सीने से लिपटा लिया.
और जब में पहाडों से उतर कर मैदानों और घाटियों में आया तो मैंने ईश्वर को वहां भी मौजूद पाया ..."

तर्क के आधार पर पढ़ेंगे इसे तो यह spiritual mumbo jumbo के अतिरिक्त कुछ नहीं है, ईश्वर के पक्ष में तर्क देने वाले आस्था पर बहुत जोर देते हैं कहते हैं यदि तुम में आस्था नहीं तो तुम ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव नहीं कर सकते !
अब एक नास्तिक कहां से लाये आस्था एक ऐसी चीज पर जो मानव के दिमाग की उपज के अलावा कुछ नहीं, शायद भविष्य में विज्ञान ही सुलझा पाये इस बहस को...

रूपम said...

बहुत अच्छा लिखा है अपने
सच को उकेर कर रख दिया है किसी अदम्य सिला पर
सच है, इश्वर सत्य है ,एक यात्रा है. जिसे पूरा करना ही लक्ष्य है .
बहस का कोई मतलब ही नहीं है , लक्ष्य ये नहीं है की इश्वर है या नहीं ,
लक्ष्य ये है की खुद क्या है इन्सान .

Randhir Singh Suman said...

thikhai.