आज स्वहित और तथाकथित विकास के लिए उनका सफाया किया जा रहा है. वृक्ष धीरे धीरे लुप्त हो रहे हैं.
आज लकड़ी के सामान का विकल्प स्टील, लोहा , फाईबर, प्लास्टिक, आदि के रूप में बाजार में उपलब्ध है. हम इतनी कोशिश तो कर ही सकते हैं कि इन विकल्पों को अपने घरों में सजाएँ, उनका उपयोग करें..और वृक्षों पर थोडा तरस खाएं..इन्ही विचारों से उपजीं कुछ पंक्तियाँ....
जब भी देखता हूँ,
अपने घर की चौखट को,
वृक्ष के अवशेषों से निर्मित
आरामदायक कुर्सियों को.
एक हूक सी उठती है दिल में,
रहे होंगे कभी बीज रूप में,
मिटटी के पोषण से आकार लिया होगा
एक नरम मुलायम पौधे ने-
बड़े संघर्षों के बाद स्वयं को बचाते हुए -
बड़ा हुआ होगा वृक्ष,
उगी होंगी फूल और पत्तियां
फूटी होंगी कोपलें
कभी बहता होगा हरा द्रव
होगी सम्पूर्ण चेतना उसमे,
नाचा होगा,
मंद मंद हवा के झोकों में
महकाया होगा वन उपवन,
प्रफुल्लित हुआ होगा-
जब किसी पथिक ने,
बिताये होंगे क्षण दो क्षण,
उसकी छाया में
वही वृक्ष
आज है निर्जीव,
मनुष्य के क्रूर बेरहम हाथों ने
छीन लिया
उसे इस धरा से.
देखता हूँ आज ,
दरवाजे, खिड़कियाँ, कुसियाँ...
अस्तित्व खोकर भी,
बेरहम मनुष्य का दोस्त......
1 comment:
प्रकृति की गोद में जो सुख है वो और कहीं नहीं, अपनी नदी और महुआ घाट के पेड़ .......... आह!!
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