Tuesday, August 25, 2009

मंटो साहब आपकी कहानी 'बू' तो बड़ी बदबू फैला रही है...!

मित्रों के आग्रह पर लगा की मंटो के बारे में और चर्चा की जाए वैसे इस अनुभवी रूह के बारे में जानना और पढना अत्यंत रोमाचक और रोचक है। मंटो का सफर केवल ४२ वर्ष रहा. अलविदा कहने से पहले के १९ वर्षों के सफर में हमें उनसे २३० कहानियां ६७ रेडियो नाटक २२ शव्द चित्र, और ७० लेख मिले.मंटो के १४ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए।

इन संग्रहों में स्याह हाशिये, नंगी आवाजें ,खोल दो , टोबा टेकसिंह, बू, धुवां, काली शलवार आदि चर्चित कहानियां शामिल हैं। छद्म नैतिकता की आढ़ में इन कहानियों को समाज द्वारा अश्लील घोषित किया गया और मंटो पर मुक़दमे चलाये गए। मंटो इन मुकदमों से मानसिक रूप से बहुत आहत हुए लेकिन उनके क्रन्तिकारी तेवर कभी नहीं बदले।
इन मुकदमों से सम्बंधित एक दिलचस्प घटना है। एक व्यक्ति ने मंटो से कहा "भाई मंटो आपकी कहानी 'बू' तो बड़ी बदबू फैला रही है. मंटो का जवाब था तो आप फिनाइल लिख दें" मंटो से अक्सर पूछा जाता आप क्यों लिखते है.....? मंटो इसका बहुत संजीदगी से जवाब देते थे उन्ही के शव्दों में ....
यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूँ... मैं क्यों पीता हूँ... लेकिन इस दृष्टि से मुख़तलिफ है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च करने पड़ते हैं और जब लिखता हूँ तो मुझे नकदी की सूरत में कुछ खर्च करना नहीं पड़ता. पर जब गहराई में जाता हूँ तो पता चलता है कि यह बात ग़लत है इसलिए कि मैं रुपए के बलबूते पर ही लिखता हूँ.लोग कला को इतना ऊँचा रूतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें असमान से मिला देते हैं. मगर क्या यह हक़ीक़त नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज़ एक सूखी रोटी की मोहताज है?मैं लिखता हूँ इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है. मैं लिखता हूँ इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूँ ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूँ.

रोटी और कला का संबंध प्रगट रूप से अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए कि ख़ुदाबंद ताला को यही मंज़ूर है. वह ख़ुद को हर चीज़ से निरपेक्ष कहता है-यह गलत है. वह निरपेक्ष हरगिज नहीं है. इसको इबादत चाहिए. और इबादत बड़ी ही नर्म और नाज़ुक रोटी है बल्कि यूँ कहिए, चुपड़ी हुई रोटी है जिससे वह अपना पेट भरता है।

मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज़ खाविंद से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ़ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए ज़र्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत अपने खाविंद से लड़कर और खुदकशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं खाविंद को दो घंटे सख़्त परेशानी की हालत में देखता हूँ तो मुझे दोनों से एक अजीब व ग़रीब क़िस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है।

किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ ज़रूर खींचेगा जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ो लड़कियाँ जान देती हैं लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीड़ित वाशिंदा.......

चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मिनान से सो जाती है, मेरे अफ़सानों की हीरोइन नहीं हो सकती। मेरी हीरोइन चकले की एक टखयाई रंडी हो सकती है. जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने आ रहा है. उसके भारी-भारी पपोटे, जिनमें वर्षों की उचटी हुई नींद जम गई है, मेरे अफ़सानों का मौजूँ (विषय) बन सकते हैं. उसकी गलाजत, उसकी बीमारियाँ, उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ-ये सब मुझे भाती हैं-मैं उसके मुताल्लिक लिखता हूँ और घरेलू औरतों की नफ़ासत पसंदी को नज़रअंदाज कर जाता हूँ.........

मैं जानता हूँ कि मेरी शख्सियत बहुत बड़ी है और उर्दू साहित्य में मेरा बड़ा नाम है। अगर यह ख़ुशफ़हमी न हो तो ज़िदगी और भी मुश्किल बन जाए. पर मेरे लिए यह एक तल्ख़ हक़ीकत है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूंढ नहीं पाया हूँ. यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है. मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ.

मुझसे पूछा जाता है कि मैं शराब से अपना पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेता? मैं अपनी जिंदगी का तीन-चौथाई हिस्सा बदपरहेजियों की भेट चढ़ा चुका हूँ। अब तो यह हालत है- मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ.........मैं समझता हूँ कि जिंदगी अगर परहेज़ से गुजारी जाए तो एक क़ैद है. अगर वह बदपरहेजियों से गुज़ारी जाए तो भी एक क़ैद है. किसी न किसी तरह हमें इस जुराब के धागे का एक सिरा पकड़कर उधेड़ते जाना है और बस.

और अंत में धर्म के दोगलेपन को उजागर करती मंटो की एक लघुकथा ...।

घाटे का सौदा

दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लड़कियों में से एक चुनी और बयालीस रुपये देकर उसे ख़रीद लिया.रात गुज़ारकर एक दोस्त ने उस लड़की से पूछा : “तुम्हारा नाम क्या है?”लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भिन्ना गया : “हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मज़हब की हो....!”लड़की ने जवाब दिया : “उसने झूठ बोला था!”यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा : “उस हरामज़ादे ने हमारे साथ धोखा किया है.....हमारे ही मज़हब की लड़की थमा दी......चलो, वापस कर आएँ.....!”

Saturday, August 15, 2009

कृशन चंदर के कुछ व्याकुल शब्द आवारा मंटो की मौत पर

एक अनोखी घटना घटी है। मंटो मर गया है। यों तो वह एक अरसे से मर रहा था। कभी सुना कि वह पागलखाने में है। कभी सुना कि वह ज्यादा शराव पीने से अस्पताल में पड़ा है। कभी सुना कि उसके यार दोस्तों ने भी उसका साथ छोड़ दिया है। कभी सुना कि वह और उसके बच्चे फाकाकशी कर रहे हैं। बहुत सी बातें सुनी हमेशा बुरी बातें सुनीं, लेकिन विश्वाश नहीं हुआ ; क्योंकि इस समय भी उसकी कहानियाँ बराबर छपती रहीं; अच्छी कहनियाँ भी और बुरी कहानियाँ भी; जिन्हें पढ़कर मंटो का मुंह नोचने को जी चाहता था , ऐसी कहानियाँ भी जिन्हें पढ़कर मुहं चूमने को जी चाहता था.....

मगर आज रेडियो पाकिस्तान ने यह ख़बर सुनाई कि मंटो धड़कन बंद हो जाने से चल बसा तो दिल और दिमाग चलते चलते एक क्षण के लिए रुक गए .....

मेरी आँख में आंसू का एक कतरा भी नहीं है, मंटो को रुलाने से अत्यन्त घृणा थी। आज मैं उसकी याद में आंसू बहाकर उसे परेशान नहीं करूँगा आहिस्ते से अपना कोट पहन लेता हूँ और घर से बाहर निकल जाता हूँ।

सब जगह उसी तरह काम हो रहा है। आल इंडिया रेडियो भी खुला है और होटल का बार भी और उर्दू बाजार भी; क्योंकि मंटो एक बहुत मामूली आदमी था। वह एक गरीव कहानीकार था, वह कोई मंत्री नहीं था जो उसकी शान में झंडे झुका दिए जाते। आल इंडिया रेडियो भी खुला है; जिसने कि सैकडो बार उसकी कहानियो के ध्वनी नाट्य रूपांतरण किये हैं, उर्दू बाजार भी खुला है, जिसने उसकी हजारों किताबें बेचीं हैं और आज भी बेच रहे हैं। आज मैं उन लोगों कहकहा लगाकर देख रहा हूँ, जिन्होंने मंटो से हजारों रुपये कि शराव पी है...

लोगों ने गोर्की के लिए अजायब घर बनाये मूर्तियाँ बनाईं ,शहर बनाये और हमने मंटो पर मुक़दमे चलाये , उसे भूखा मारा उसे पागल खाने पहुँचाया , उसे अस्पतालों में सड।या और यहाँ तक मजबूर कर दिया कि वह किसी इंसान को नहीं शराब की बोतल को अपना दोस्त समझने को मजबूर हो जाये . हम इंसानों के नहीं मकबरों के पुजारी हैं . दिल्ली में मिर्जा गालिव की फिल्म चल रही है, इस फिल्म की कहानी इसी दिल्ली के मोरी गेट में बैठ कर मंटो ने लिखी थी ...मंटो दुबारा पैदा नहीं होगा यह मैं भी जानता हूँ और राजेन्द्र सिंह बेदी भी अस्मत चुगताई भी , ख्वाजा अहमद अब्बास भी और उपेन्द्रनाथ अश्क भी ।

' मन मुक्ता ' से साभार
ये पंक्तियाँ जुलाई १९५६ में छपी मंटो की किताब हवा के घोडे से ली गयीं हैं. इस पुस्तक में छपे कृशन चंदर के बेचैन करने वाले शब्द क्या आज भी उतने ही नए नहीं हैं? जबकि मंटो और कृशन चंदर को गुजरे एक जमाना बीत गया हैं .यथार्थ ज्यों का त्यों है.

Sunday, August 2, 2009

कन्यादान योजना एक अदूरदर्शी योजना

मध्यप्रदेश सरकार आजकल कन्यादान योजना चला रही है। प्रथम तो इस योजना के नामकरण पर ही प्रश्नचिन्ह लगना चाहिए .कन्यादान शब्द हिंदू समाज के लिए कलंक से ज्यादा नहीं है। हिंदू धर्म में दान का सर्वाधिक महत्व है जरूरतमंद को दान देना या उसकी मदद करना बुरा नही है। लेकिन हमें यह समझना चाहिए की दान वस्तुओं का होता है। चूंकि समाज में सदियों से स्त्री को भी वस्तु के रूप देखा गया है। इसलिए लोग कन्यादान करते हैं। अब यह कार्य मध्यप्रदेश सरकार ने अपने हाथों में लेलिया है।

अब यहाँ के नेता अधिक से अधिक वयस्क,अवयस्क लड़के,लड़कियों को इकठ्ठा करते हैं। उनकी शादियाँ करवाते हैं। कन्यादान करते हैं और पुण्य कमाते हैं। इसतरह अब मध्यप्रदेश के नेताओं को स्वर्ग मिलना लगभग तय हो गया है।

ये प्रश्न पूछा जाना चाहिए की क्या मध्यप्रदेश सरकार ने गरीब लड़केलड़कियों की शादी करवाने का ठेका ले रखा है? वैसे ही गरीब परिवार दो वक्त की रोटी बड़ी मुश्किल से कमापाता है। एक अन्य सदस्य बढ़ जाने से क्या उनकी गरीबी दूर हो जायेगी ?

यह मूर्खतापूर्ण योजना भविष्य में खतरे की घंटी है। क्योंकि ये विवाहित जोड़े आठ दस माह में दो से तीन होने वाले है। वैसे ही हमारे अनेक राज्य जनसँख्या के बोझ से दबे जारहे हैं। मध्यप्रदेश की कुल जनसँख्या ही थाईलैंड की जनसँख्या के बराबर है। क्या जनसँख्या की वृद्धिदर को देखते हुए इसतरह की योजनायें लाभकारी हैं? नेता वोटबेंक के चक्कर में इसप्रकार की योजनायें लागू करते रहते है इसका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है। आपके क्या विचार है?