Saturday, March 17, 2012

ठेके पर पत्रकारिता

सुबह  होते ही जिस चीज का सामना सबसे पहले होता है, वह है अख़बार... एक स्वस्थ मनुष्य अख़बार में सत्य शिव और सुंदर को खोजता है. लेकिन वहां मिलता है उसे अपराध, अन्धविश्वाश,धोखाधड़ी, नेतागिरी, भ्रमित करने वाले विज्ञापन, मूर्ख बनाने वाले राशिफल, धर्म के धंधेबाजों के उपदेश...

 कोई दिशा नहीं.... कोई नीति नहीं. सिर्फ भोले भाले पाठकों से पैसा हथियाने का तरीका.....

जब देश में बम बिस्फोट नहीं होते, अपराध कम होते हैं, आश्चर्य की बात है कि उस वक्त समाचार पत्रों के पास  कहने के लिए कुछ  खास  नहीं होता.छापने के लिए  सामग्री  नहीं होती. उनका फ्रंट  पेज रूखा सूखा दिखाई देता है.उन्हें इंतजार होता है  किसी बड़ी दुर्घटना का, किसी बड़े धमाके का, सुनामी का, किसी  भूकंप का..... .बड़ी त्रासदी देख कर मीडिया की बांछें खिल जातीं हैं.उनका फ्रंट  पेज ज्यादा खिलखिलाने लगता है बैनर शीर्षक के साथ....
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 दो प्रेमी प्रेमिका आपस में मिलना चाहते हैं और समाज उसमे बाधा डालता है, साम्प्रदायिक संगठन और पुलिस उन्हें परेशान करते  हैं  , यह समाचार पत्रों की विषय वस्तु नहीं होती. लेकिन यही  प्रेमी प्रेमिका आत्महत्या  कर लेते हैं या ऑनर किलिंग के अंतर्गत अपनों द्वारा ही मार डाले जाते हैं तो यही खबर  समाचार पत्रों की  हेड लाइन बन जाती हैं. हम जीवन पसंद नहीं करते हैं.हम मौत पसंद करते हैं. हम मौत के सौदागर हैं.


मेरे एक पत्रकार मित्र का विचार है, "हम  न्यूज़ छापते हैं वियुज नहीं " मैं उनसे सहमत हूँ . लेकिन किस तरह
की न्यूज़ ?

न्यूज़ ऐसी हो जिससे विचार पैदा हो विकृति नहीं . अपराध समाचार विकृति पैदा करते हैं . नेताओं की ख़बरें और उनका स्तुति गान दो कोड़ी के लोगों को महान बनाता हैं.भ्रष्ट लोगों का प्रचार प्रसार समाज में भ्रष्टाचार बढ़ाता है .

एक लाख लोगों में दो चार अपराध करते हैं और वाकी के लोग क्या करते हैं. क्या पत्रकार और पत्र के मालिक इस और ध्यान देते हैं?  मेरे ख्याल से वाकी के लोग समाचार पत्र पढ़ते हैं और निराश होते हैं.

यह  सच है की पहले का पत्रकार अभावग्रस्त   जिन्दगी जीता था .कभी कभी  तो भूखों मरने की नौबत आ जाती थी. अपने घर की रद्दी बेच कर अपना पेट भरना पड़ता था. भारीभरकम ब्याज पर पैसा उधार लेकर अपने प्रकाशन को जीवित रखता था. 

आज पत्रकार के पास पैसा है घर है.सारी सुविधाएँ  हैं..लेकिन उसमे  जीवन मूल्यों की कमी है.धंधे पर उसकी पकड़ है.पैसा खीचना वह जानने लगा है  लेकिन इस आपाधापी में सामाजिक सरोकार से वह बहुत  दूर चला  गया  हैं.
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 पहले पत्रकार अपने पत्र का खुद ही मालिक हुआ करता था लेकिन आज पत्र के मालिक का पत्रकारिता से ज्यादा लेनादेना नहीं होता...वह पत्रकारिता के अलावा   सबकुछ जानता है.

वह आजकल नमक तेल बेचता है. पत्थर बेचता  है . जमीनें बेचता है. आज मालिक तानाशाह है और पत्रकार गुलाम.वह पत्रकारों को ठेके पर रख कर अपना मतलब साधता हैं.  खोजी पत्रकारिता का अस्तित्व अब खतरे में है.

यदि कोई पत्रकार उत्साहवस कोई अच्छी खबर खोज कर लाता भी है. तो संपादक समूह या तो उसे छपने ही नहीं देता  या उसे इतनी सामान्य खबर बना कर प्रस्तुत करता  हैं की उसका मूल स्वरुप ही गायब  हो जाता है. 

आज की पत्रकारिता नेताओं, धर्म के धंधेबाजों और भोलीभाली असहिष्णु धर्मभीरु जनता को तुष्ट करने का जरिया है. समाचारपत्रों में से कुछ स्तम्भ लेखकों को हटा दिया जाये तो पत्र में समझदार पाठकों के लिए कुछ नहीं बचता  सिवाय रद्दी इक्कठी करने के

आज ईमानदार और कुछ कर गुजरने वाले पत्रकारों की कमी नहीं हैं.लेकिन उनके पास साधन नहीं हैं..

असल में जबसे लघु पत्र पत्रिकाओं  का अस्तित्व संकट में आया, विधायक पत्रकारिता का लगभग लोप सा हो गया. पत्रकारिता विधायक होनी चाहिए. सृजन से सरोकार रखने वाली पत्रकारिता में मानव मूल्य निहित होते हैं. हाशिये पर पड़ी मानव मूल्यों से ओतप्रोत अनदेखी ख़बरों को मुख्य पृष्ठ की विषय वस्तु बनानी होगी तभी जाकर सृजनात्मक पत्रकारिता को सम्मान मिलेगा.

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