हमारे देश के हिन्दू संगठन रातदिन हो हल्ला मचाते हैं, हिन्दू एक नहीं हैं. धर्म परिवर्तन करके मुसलमान या ईसाई बन रहे हैं. हिंदुत्व खतरे में है....पूछने पर कि ऐसा क्यों है? सारा दारोमदार इसलाम का प्रचार या ईसाई मिशनरियों के ऊपर थोप दिया जाता है....लेकिन हिन्दू समाज की विसंगतियों पर किसी संगठन या धर्माधिकारी का ध्यान नहीं जाता है. दूसरे धर्मों के लोग इस महान कहे जाने वाले हिन्दू समाज में दीक्षित क्यों नहीं हो रहे हैं..?
यही प्रश्न मैंने अपने एक मित्र जो कि विश्व हिन्दू परिषद् के जिला महामंत्री हैं, के सामने रखा. लेकिन मुझे कोई समुचित उत्तर न मिलने पर मैंने उनसे कहा कि बहुत से अन्य धर्मों के लोग हैं जो कि इस हिन्दू धर्म में दीक्षित होना चाहते हैं, लेकिन पहले यह बताइए कि दीक्षित होने के बाद आपका विश्व हिन्दू परिषद् उन्हें किस जाति में रखेगा? आपके धर्म में शूद्र होना कोई नहीं चाहेगा क्या आप उन्हें ब्राह्मण वर्ग में जगह दे सकते हैं और कि क्या ब्राह्मण वर्ग उन्हें ह्रदय से स्वीकार कर उनसे रोटी बेटी का सम्बन्ध स्थापित कर सकता है...? उनके उत्तर की प्रतीक्षा आज भी है मुझे...
सच तो यह है इस आधुनिक युग में भी हम कविलियाई संस्कृति से मुक्त नहीं हुए हैं 'आप ब्राह्मण, मैं भी ब्राह्मण आप कायस्थ , मैं भी कायस्थ- अब ठीक! अब ढपली ठीक बजेगी! आज भी हमारे यही विचार हैं. रेल में सफर करते हुए जब तक हम सहयात्री की जाति नहीं जान लेते हमारी आत्मा बेचैन रहती है.. और ये अनपढों की बातें नहीं शिक्षित और उच्च शिक्षित लोगों की भी यही मानसिकता है.
सभी ने अपने अपने संघ या कबीले बना रखे हैं. ब्राह्मण महापंचायत, क्षत्रिय समाज , अखिल भारतीय कायस्थ समाज,
कोरी समाज, यादव समाज और न जाने क्या क्या...और यह सारा खेल समाज व्यवस्था के नाम पर चल रहा है.
चाहे विश्व हिन्दू परिषद् हो शिवसेना हो, बजरंग दल हो या अन्य कोई दलदल इस तरफ से सभी ऑंखें मूंदे हुए हैं, सभी लोगों के पांव जातिवाद के कीचड में सने हैं. लोग मुसलमानों का विरोध कर रहें हैं ,लेकिन हिन्दू समाज की सडांध पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.
कट्टरवाद रूपी कैंसर से पीड़ित समूह, धर्म के नाम पर हिन्दू समाज को नालायक बनाये रखने की चाल में सफल है. उन्हें पता है कि यदि हिन्दू समाज अपनी जाति की बेडियों से मुक्त हो गया तो उसे मूर्ख बनाना मुश्किल हो जायेगा. यदि एक जाति दूसरी जाति से मेल मिलाप करने लगी तो जाति के नाम पर श्रेष्ठता अर्जित करने वाले और उन पर अपनी धाक जमा कर रोजी रोटी चलाने वालों का क्या होगा? और यही हिन्दू दुसरे धर्मों से मेलजोल और उनसे रोटी बेटी का सम्बन्ध रखने लगा तो, शिवसेना और विश्व हिन्दू परिषद् आदि संगठनो का क्या होगा, उनकी नेतागिरी किस दम पर चलेगी?
बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद हिन्दू, मुस्लमान की खाई को और अधिक गहरा किया गया है. हिन्दू को और अधिक हिन्दू और मुसलमान को और अधिक मुसलमान बनाने का कुप्रयास निरंतर जारी है. हिन्दू इसके पूर्व अपने समाज में व्याप्त बुराइयों पर खुल कर चर्चा करता था लेकिन अब अपने ही गिरेहबान में झाँकने की उसकी हिम्मत नहीं होती. हिंदुत्व पर खतरा जैसा विचार उसके मस्तिष्क में बिठा दिया गया है. इस मानसिकता का सबसे अधिक कुप्रभाव युवा पीढी पर देखने को मिल रहा है. अब तो कुछ लोग सड़ीगली परम्पराओं को फिर से स्थापित करने के लिए इन कुप्रथाओं में तर्क और वैज्ञानिकता ढूँढने का बेढंगा प्रयास करने में जुटे हैं...
हम भविष्य की पीढी के लिए कौनसा आदर्श उपस्थित कर रहे हैं आज इस बात को समझना हर प्रबुद्ध व्यक्ति की प्रथम आवश्यकता है...
Sunday, October 25, 2009
Sunday, October 11, 2009
गंगा जमुनी संस्कृति को समझो मेरे हिन्दुस्तानी मित्र!!!
मेरे दिन की शुरुआत आबिदा परवीन की गाई कबीर बानी से शुरू होती है. नुशरत फतह अली खान एवं ए आर रहमान का मैं जबरदस्त प्रशंसक हूँ.. आमिर खान और दिलीप कुमार मेरे सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं की सूची में हैं. मैं शाहरुख़ को पसंद करता हूँ और सलमान खान के परिवार को इस देश के लिए एक आदर्श परिवार... मुझे सितारवादक रविशंकर और अनुष्का शंकर के साथ साथ सरोदवादक अमजद अली खान और उनकी न्रत्यांगना पत्नी शुभलक्ष्मी एक कलाकार के रूप में बेहद पसंद है. आमिर खान और शाहरुख़ खान की पत्नियाँ हिन्दू है, और ऋतिक रोशन और सुभाष घई की पत्नियाँ मुस्लिम समाज से सम्बन्ध रखती हैं, ये लोग अपने अपने धर्म का पालन करते हुए भी एक साथ जीवन व्यतीत कर रहे है, इनकी पत्नियाँ स्वतंत्र है. मैंने अभी तक नहीं पढ़ा या सुना कि धर्म के कारण इनमे कभी कलह हुई हो... इन सब प्रत्यक्ष उदाहरणों के बाद भी देश में साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं...
किसी भी देश की संस्कृति किसी की व्यक्तिगत बपौती नहीं होती. समय के साथ साथ इसमें बदलाव होता है. कई संस्कृतियों के मेल से एक संस्कृति का जन्म होता है. और वह संस्कृति समय के साथ फलती फूलती रहती है. जब किसी संस्कृति में कट्टरता के तत्व आ जाते हैं तो वह संस्कृति स्वतंत्रता में बाधक बन जाती है. और वहीँ से उसका पतन शुरू हो जाता है. संस्कृति का मूल स्वभाव लचीला होता है...हमारी संस्कृति ही गंगा जमुनी है.
जब जगजीत सिंह अपनी मधुर आवाज में निदाफाजली और बशीर बद्र को सुनाते हैं, जब पॉँच वक्त की नवाज पढने वाले मुहम्मद रफी गाते हैं "वृन्दावन का कृष्ण कन्हैया सबकी आँखों का तारा " या नौशाद की धुन पर "मन तरपत हरि दर्शन को आज " तो आपको कौनसा धर्म याद रहता है..?.
जब इस्मत चुगताई प्रथ्वी राजकपूर की एक झलक पाने के लिए बेताब रहती हैं. जब अमृता प्रीतम साहिर लुधियानवी के ख्वाबों में खोई रहती हैं. जब नरगिश राजकपूर से प्रेम करती है. और सुनील दत्त बिना भेदभाव के नरगिश से शादी कर लेते है. जब प्रसिद्द कहानीकार नासिरा अपने नाम के साथ शर्मा जोड़ कर नासिरा शर्मा लिखतीं हैं. जब प्रसिद्द साहित्यकार एवं महाभारत के संवाद लेखक राही मासूम रजा की बहु स्वयं को लिखती है पार्वती खान और जब कोई इंदिरा पारसी युवक फिरोज से विवाह करती है,और महात्मा गाँधी उसका समर्थन करते है. तब इस देश की संस्कृति गौरवान्वित होती है और मनुष्यता सम्मानित....
बुद्ध महावीर कबीर के देश में हम किसी एक धर्म की अंगुली पकड़ कर नहीं चल सकते. धर्म का अर्थ ही होता है धारण करना अर्थात जो ग्रहण करने योग्य हो, इस तरह यह बिलकुल व्यक्तिगत वस्तु है. जिस धर्म में जो बात अच्छी है उसे अपनाना बुरा नहीं है. लेकिन कोई कहे की वैष्णव धर्म ही महान है या इस्लाम धर्म सर्वश्रेष्ठ है. तो आज के युग में यह बात स्वीकार योग्य नहीं है.
कोई सा भी धर्म न तो बड़ा है.और न छोटा . यदि इसलाम शांति और अमन की बात करता है.तो उपनिषद भी बसुधैव कुटुम्बकम और सत्यमेव जयते का उदघोष करते हैं. असल में सारा झगडा गलत तालीम दूषित राजनीति, फिरकेपरस्ती का है. जिन लोगों के गले में धर्म के ढोल टंगे हुए हैं. वे कहीं न कहीं किसी राजनीतिक दल से जुड़े हुए हैं या धार्मिक गुटबंदी और फिरकापरस्ती के शिकार हैं...
मेरे एक ब्लोगर मित्र ने एक बहुत प्यारी बात कही है. कि "आप अपने धर्म का प्रचार करें, उससे हम भी कुछ सीखेंगे लेकिन दुसरे धर्म को नीचा दिखा कर नहीं. " यदि आपको धर्म की बुराइयाँ ही गिनानी हैं तो पहले अपने धर्म का सूक्ष्म अवलोकन करें यदि यह संभव नहीं है. तो अपने समाज की ही छानबीन करलें यह बात सभी धर्मों के लिए समान रूप से है..
फिल्म लेखक सलीम खान का घर भारतीय परिवार का एक आधुनिक फार्मूला है. उनके परिवार में सभी धर्म के लोग शामिल हैं . सलीम के ही शब्दों में " क्या कठमुल्ले और धर्मांध लोग जानते हैं कि सलमान की माँ एक महाराष्ट्रियन हिन्दू है. और सलमान का एबिलिकल कार्ड उसकी माँ से जुडा हुआ है! उसकी माँ अपने घर से रुखसत लेकर इस घर में आई तो जरूर, मगर अपने माँ बाप, भाई बहन , रिश्तेदार और अपने धर्म को छोड़ कर नहीं. सलमान ने अपनी माँ के धर्म की इज्जत करना उसकी गोद में ही सीखा है. यही हर मजहब सिखाता है. वह आगे कहते हैं..... मुझसे किसी ने पूछा आप लोगों का आखिर मजहब क्या है? मैंने बताया कि जब कार का जोर से ब्रेक लगता है और हम किसी खतरनाक एक्सीडेंट से बाल बाल बच जाते है,तो मेरे मुंह से बेसाख्ता निकलता है- अल्लाह खैर, मेरी बीवी के मुंह से निकलता है अरे देवा! और मेरे बच्चों के मुंह से साथ साथ निकलता है, ओह, शिट! यही हमारी फेमिली के नेशनल इंटीग्रेशन का एक छोटा सा फार्मूला है.."
क्या ऐसा ही फार्मूला पूरे देश में लागू नहीं हो सकता????
किसी भी देश की संस्कृति किसी की व्यक्तिगत बपौती नहीं होती. समय के साथ साथ इसमें बदलाव होता है. कई संस्कृतियों के मेल से एक संस्कृति का जन्म होता है. और वह संस्कृति समय के साथ फलती फूलती रहती है. जब किसी संस्कृति में कट्टरता के तत्व आ जाते हैं तो वह संस्कृति स्वतंत्रता में बाधक बन जाती है. और वहीँ से उसका पतन शुरू हो जाता है. संस्कृति का मूल स्वभाव लचीला होता है...हमारी संस्कृति ही गंगा जमुनी है.
जब जगजीत सिंह अपनी मधुर आवाज में निदाफाजली और बशीर बद्र को सुनाते हैं, जब पॉँच वक्त की नवाज पढने वाले मुहम्मद रफी गाते हैं "वृन्दावन का कृष्ण कन्हैया सबकी आँखों का तारा " या नौशाद की धुन पर "मन तरपत हरि दर्शन को आज " तो आपको कौनसा धर्म याद रहता है..?.
जब इस्मत चुगताई प्रथ्वी राजकपूर की एक झलक पाने के लिए बेताब रहती हैं. जब अमृता प्रीतम साहिर लुधियानवी के ख्वाबों में खोई रहती हैं. जब नरगिश राजकपूर से प्रेम करती है. और सुनील दत्त बिना भेदभाव के नरगिश से शादी कर लेते है. जब प्रसिद्द कहानीकार नासिरा अपने नाम के साथ शर्मा जोड़ कर नासिरा शर्मा लिखतीं हैं. जब प्रसिद्द साहित्यकार एवं महाभारत के संवाद लेखक राही मासूम रजा की बहु स्वयं को लिखती है पार्वती खान और जब कोई इंदिरा पारसी युवक फिरोज से विवाह करती है,और महात्मा गाँधी उसका समर्थन करते है. तब इस देश की संस्कृति गौरवान्वित होती है और मनुष्यता सम्मानित....
बुद्ध महावीर कबीर के देश में हम किसी एक धर्म की अंगुली पकड़ कर नहीं चल सकते. धर्म का अर्थ ही होता है धारण करना अर्थात जो ग्रहण करने योग्य हो, इस तरह यह बिलकुल व्यक्तिगत वस्तु है. जिस धर्म में जो बात अच्छी है उसे अपनाना बुरा नहीं है. लेकिन कोई कहे की वैष्णव धर्म ही महान है या इस्लाम धर्म सर्वश्रेष्ठ है. तो आज के युग में यह बात स्वीकार योग्य नहीं है.
कोई सा भी धर्म न तो बड़ा है.और न छोटा . यदि इसलाम शांति और अमन की बात करता है.तो उपनिषद भी बसुधैव कुटुम्बकम और सत्यमेव जयते का उदघोष करते हैं. असल में सारा झगडा गलत तालीम दूषित राजनीति, फिरकेपरस्ती का है. जिन लोगों के गले में धर्म के ढोल टंगे हुए हैं. वे कहीं न कहीं किसी राजनीतिक दल से जुड़े हुए हैं या धार्मिक गुटबंदी और फिरकापरस्ती के शिकार हैं...
मेरे एक ब्लोगर मित्र ने एक बहुत प्यारी बात कही है. कि "आप अपने धर्म का प्रचार करें, उससे हम भी कुछ सीखेंगे लेकिन दुसरे धर्म को नीचा दिखा कर नहीं. " यदि आपको धर्म की बुराइयाँ ही गिनानी हैं तो पहले अपने धर्म का सूक्ष्म अवलोकन करें यदि यह संभव नहीं है. तो अपने समाज की ही छानबीन करलें यह बात सभी धर्मों के लिए समान रूप से है..
फिल्म लेखक सलीम खान का घर भारतीय परिवार का एक आधुनिक फार्मूला है. उनके परिवार में सभी धर्म के लोग शामिल हैं . सलीम के ही शब्दों में " क्या कठमुल्ले और धर्मांध लोग जानते हैं कि सलमान की माँ एक महाराष्ट्रियन हिन्दू है. और सलमान का एबिलिकल कार्ड उसकी माँ से जुडा हुआ है! उसकी माँ अपने घर से रुखसत लेकर इस घर में आई तो जरूर, मगर अपने माँ बाप, भाई बहन , रिश्तेदार और अपने धर्म को छोड़ कर नहीं. सलमान ने अपनी माँ के धर्म की इज्जत करना उसकी गोद में ही सीखा है. यही हर मजहब सिखाता है. वह आगे कहते हैं..... मुझसे किसी ने पूछा आप लोगों का आखिर मजहब क्या है? मैंने बताया कि जब कार का जोर से ब्रेक लगता है और हम किसी खतरनाक एक्सीडेंट से बाल बाल बच जाते है,तो मेरे मुंह से बेसाख्ता निकलता है- अल्लाह खैर, मेरी बीवी के मुंह से निकलता है अरे देवा! और मेरे बच्चों के मुंह से साथ साथ निकलता है, ओह, शिट! यही हमारी फेमिली के नेशनल इंटीग्रेशन का एक छोटा सा फार्मूला है.."
क्या ऐसा ही फार्मूला पूरे देश में लागू नहीं हो सकता????
Saturday, October 3, 2009
खुशवंत सिंह का रामराज्य
खुशवंत सिंह हिंदी के लेखक नहीं हैं। लेकिन बचपन से मैं उन्हें हिंदी में पढता आया हूँ. जब भी उन्हें हिंदी चैनलों पर सुना हिंदी में बोलते हुए पाया. उनसे एक बार पूछा गया कि आप हिंदी में क्यों नहीं लिखते तो उनका जवाब था कि मुझे हिंदी में लिखने का शऊर नहीं है , यानि हिंदी में लिखने की कला से वह अनभिज्ञ हैं.
खुशवंत सिंह मुझे बेहद पसंद हैं...कारण? वह थोडा अलग हट कर सोचते हैं॥ बंधी बंधाई परिपाटी पर नहीं चलते हैं। उनके विचार उन्मुक्त हैं.. वह मनुष्यता और उसके जीने के ढंग को प्राथमिकता देते हैं। उनका लेखन भेदभाव रहित है। वह विद्रोही हैं. ताजी हवा का झोंका हैं. वह स्वयं को नास्तिक कहते हैं. लेकिन वह नास्तिक नहीं हैं, वह आस्तिक भी नहीं हैं. वह ईश्वर पर विश्वाश नहीं करते लेकिन जो बात अनुभव में आ जाये वह बिना लाग लपेट के सीधा अभिव्यक्त करते हैं....
वह सेक्स पर खुल कर बोलते हैं और इस धरती पर रहकर परिंदों की तरह आसमान में स्वच्छंद विचरण करते हैं। एक ही ढर्रे पर चलने वाले समाज के लिए वह "मिसफिट" हैं। छद्म नैतिकता के आवरण में दुबके समाज के लिए उनके विचार हानिकारक हो सकते हैं... ९४ साल की उम्र में भी उनके विचार युवा मानसिकता को मात देने वाले हैं... नए हिंदुस्तान के बारे में उनके विचार एक दम बिंदास हैं... उनके ही शब्दों में ....
"अपने सपनों के भारत के बारे में कई बातें कहना चाहता हूँ। सबसे पहले तो मैं चाहूँगा कि भारत धर्म, शकुन विचार, और जन्मपत्री तथा ज्योतिष जैसी चीजों में अन्धविश्वाश करना छोड़ दे। देश परम्पराओं के मुर्दा बोझ, स्त्रियों से भेदभाव, पर्दा, संयुक्त परिवार के बोझ और आयोजित विवाहों से स्वतंत्र हो जाये। दमन कारी कानूनों और लोगों के निजी मामलों में सरकारी हस्तक्षेप में आजादी हो... किसी प्रकार की हिंसा का भय न रहे... न तो सरकार से और न किसी व्यक्ति से, ताकि लोग जिन जंजीरों में बंधे हुए हैं, उनसे आजाद हो जाएँ तथा उत्पादनशील, रचनात्मक, स्वतंत्र हो सकें... मैं तो ऐसे रामराज्य का ही स्वप्न देखता हूँ... "
(द ' इल्लसट्रटिड वीकली' के एक पुराने अंक से तारिका में प्रकाशित एक स्तंभ से साभार.....)
Subscribe to:
Posts (Atom)