Saturday, August 15, 2009

कृशन चंदर के कुछ व्याकुल शब्द आवारा मंटो की मौत पर

एक अनोखी घटना घटी है। मंटो मर गया है। यों तो वह एक अरसे से मर रहा था। कभी सुना कि वह पागलखाने में है। कभी सुना कि वह ज्यादा शराव पीने से अस्पताल में पड़ा है। कभी सुना कि उसके यार दोस्तों ने भी उसका साथ छोड़ दिया है। कभी सुना कि वह और उसके बच्चे फाकाकशी कर रहे हैं। बहुत सी बातें सुनी हमेशा बुरी बातें सुनीं, लेकिन विश्वाश नहीं हुआ ; क्योंकि इस समय भी उसकी कहानियाँ बराबर छपती रहीं; अच्छी कहनियाँ भी और बुरी कहानियाँ भी; जिन्हें पढ़कर मंटो का मुंह नोचने को जी चाहता था , ऐसी कहानियाँ भी जिन्हें पढ़कर मुहं चूमने को जी चाहता था.....

मगर आज रेडियो पाकिस्तान ने यह ख़बर सुनाई कि मंटो धड़कन बंद हो जाने से चल बसा तो दिल और दिमाग चलते चलते एक क्षण के लिए रुक गए .....

मेरी आँख में आंसू का एक कतरा भी नहीं है, मंटो को रुलाने से अत्यन्त घृणा थी। आज मैं उसकी याद में आंसू बहाकर उसे परेशान नहीं करूँगा आहिस्ते से अपना कोट पहन लेता हूँ और घर से बाहर निकल जाता हूँ।

सब जगह उसी तरह काम हो रहा है। आल इंडिया रेडियो भी खुला है और होटल का बार भी और उर्दू बाजार भी; क्योंकि मंटो एक बहुत मामूली आदमी था। वह एक गरीव कहानीकार था, वह कोई मंत्री नहीं था जो उसकी शान में झंडे झुका दिए जाते। आल इंडिया रेडियो भी खुला है; जिसने कि सैकडो बार उसकी कहानियो के ध्वनी नाट्य रूपांतरण किये हैं, उर्दू बाजार भी खुला है, जिसने उसकी हजारों किताबें बेचीं हैं और आज भी बेच रहे हैं। आज मैं उन लोगों कहकहा लगाकर देख रहा हूँ, जिन्होंने मंटो से हजारों रुपये कि शराव पी है...

लोगों ने गोर्की के लिए अजायब घर बनाये मूर्तियाँ बनाईं ,शहर बनाये और हमने मंटो पर मुक़दमे चलाये , उसे भूखा मारा उसे पागल खाने पहुँचाया , उसे अस्पतालों में सड।या और यहाँ तक मजबूर कर दिया कि वह किसी इंसान को नहीं शराब की बोतल को अपना दोस्त समझने को मजबूर हो जाये . हम इंसानों के नहीं मकबरों के पुजारी हैं . दिल्ली में मिर्जा गालिव की फिल्म चल रही है, इस फिल्म की कहानी इसी दिल्ली के मोरी गेट में बैठ कर मंटो ने लिखी थी ...मंटो दुबारा पैदा नहीं होगा यह मैं भी जानता हूँ और राजेन्द्र सिंह बेदी भी अस्मत चुगताई भी , ख्वाजा अहमद अब्बास भी और उपेन्द्रनाथ अश्क भी ।

' मन मुक्ता ' से साभार
ये पंक्तियाँ जुलाई १९५६ में छपी मंटो की किताब हवा के घोडे से ली गयीं हैं. इस पुस्तक में छपे कृशन चंदर के बेचैन करने वाले शब्द क्या आज भी उतने ही नए नहीं हैं? जबकि मंटो और कृशन चंदर को गुजरे एक जमाना बीत गया हैं .यथार्थ ज्यों का त्यों है.

6 comments:

Anonymous said...

आह! कहाँ आप भी याद दिला बैठे मंटो और कृष्ण चंदर की!
महान लेखकों की महान रचनाएँ आँखों के सामने आ गईं

आभार

संदीप said...

मैंने मंटो को थोड़ा बहुत पढ़ा है, लेकिन उनके बारे में कृश्‍नचंदर की इन पंक्तियों को आज पहली बार पढ़ा...

वेद रत्न शुक्ल said...

हम इंसानों के नहीं मकबरों के पुजारी हैं... मन््टो और उनकी कहानियां मुझे बहुत प्रभावित करते हैं। उनकी कहानियां तो माशा-अल््लाह।
मंटो के बारे में एक बात और वह कलम से नहीं बल््कि टाइपराइटर पर लिखते थे। कहानी लेखन की शुरुआत 786 से शुरू करते थे। वह कहते थे कि 'मैं दिमाग से नहीं जेब से लिखता हूं।' दरअसल कहानियों के प्रकाशन से हुई आमदनी ही उनके जीने का साधन थी। पुराने सिनेमा पर नजर डालती उनकी किताब 'मीना बाजार' पढ़ने लायक है।

Chandan Kumar Jha said...

मंटो की बहुत सी कहानियां पढी है मैनें.....चर्चा के लिये आभार.

चिट्ठाजगत में स्वागत है.

गुलमोहर का फूल

उम्मीद said...

आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . आशा है आप अपने विचारो से हिंदी जगत को बहुत आगे ले जायंगे
लिखते रहिये
चिटठा जगत मे आप का स्वागत है
गार्गी

Unknown said...

रामकुमार जी , मंटो के विषय में न जानने वालों के लिए इस अनसुलझी पहेली को सुलझाने की कृपा करें! मंटो बस नाम भर सुना है, पर जानने की जिज्ञासा है ! आशा है की नवोदितों के निवेदन पर अपने व्यस्ततम समय में से कुछ पल आप ज़रूर निकालेंगे !
सप्रेम ... अनुराग