Saturday, March 17, 2012

ठेके पर पत्रकारिता

सुबह  होते ही जिस चीज का सामना सबसे पहले होता है, वह है अख़बार... एक स्वस्थ मनुष्य अख़बार में सत्य शिव और सुंदर को खोजता है. लेकिन वहां मिलता है उसे अपराध, अन्धविश्वाश,धोखाधड़ी, नेतागिरी, भ्रमित करने वाले विज्ञापन, मूर्ख बनाने वाले राशिफल, धर्म के धंधेबाजों के उपदेश...

 कोई दिशा नहीं.... कोई नीति नहीं. सिर्फ भोले भाले पाठकों से पैसा हथियाने का तरीका.....

जब देश में बम बिस्फोट नहीं होते, अपराध कम होते हैं, आश्चर्य की बात है कि उस वक्त समाचार पत्रों के पास  कहने के लिए कुछ  खास  नहीं होता.छापने के लिए  सामग्री  नहीं होती. उनका फ्रंट  पेज रूखा सूखा दिखाई देता है.उन्हें इंतजार होता है  किसी बड़ी दुर्घटना का, किसी बड़े धमाके का, सुनामी का, किसी  भूकंप का..... .बड़ी त्रासदी देख कर मीडिया की बांछें खिल जातीं हैं.उनका फ्रंट  पेज ज्यादा खिलखिलाने लगता है बैनर शीर्षक के साथ....
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 दो प्रेमी प्रेमिका आपस में मिलना चाहते हैं और समाज उसमे बाधा डालता है, साम्प्रदायिक संगठन और पुलिस उन्हें परेशान करते  हैं  , यह समाचार पत्रों की विषय वस्तु नहीं होती. लेकिन यही  प्रेमी प्रेमिका आत्महत्या  कर लेते हैं या ऑनर किलिंग के अंतर्गत अपनों द्वारा ही मार डाले जाते हैं तो यही खबर  समाचार पत्रों की  हेड लाइन बन जाती हैं. हम जीवन पसंद नहीं करते हैं.हम मौत पसंद करते हैं. हम मौत के सौदागर हैं.


मेरे एक पत्रकार मित्र का विचार है, "हम  न्यूज़ छापते हैं वियुज नहीं " मैं उनसे सहमत हूँ . लेकिन किस तरह
की न्यूज़ ?

न्यूज़ ऐसी हो जिससे विचार पैदा हो विकृति नहीं . अपराध समाचार विकृति पैदा करते हैं . नेताओं की ख़बरें और उनका स्तुति गान दो कोड़ी के लोगों को महान बनाता हैं.भ्रष्ट लोगों का प्रचार प्रसार समाज में भ्रष्टाचार बढ़ाता है .

एक लाख लोगों में दो चार अपराध करते हैं और वाकी के लोग क्या करते हैं. क्या पत्रकार और पत्र के मालिक इस और ध्यान देते हैं?  मेरे ख्याल से वाकी के लोग समाचार पत्र पढ़ते हैं और निराश होते हैं.

यह  सच है की पहले का पत्रकार अभावग्रस्त   जिन्दगी जीता था .कभी कभी  तो भूखों मरने की नौबत आ जाती थी. अपने घर की रद्दी बेच कर अपना पेट भरना पड़ता था. भारीभरकम ब्याज पर पैसा उधार लेकर अपने प्रकाशन को जीवित रखता था. 

आज पत्रकार के पास पैसा है घर है.सारी सुविधाएँ  हैं..लेकिन उसमे  जीवन मूल्यों की कमी है.धंधे पर उसकी पकड़ है.पैसा खीचना वह जानने लगा है  लेकिन इस आपाधापी में सामाजिक सरोकार से वह बहुत  दूर चला  गया  हैं.
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 पहले पत्रकार अपने पत्र का खुद ही मालिक हुआ करता था लेकिन आज पत्र के मालिक का पत्रकारिता से ज्यादा लेनादेना नहीं होता...वह पत्रकारिता के अलावा   सबकुछ जानता है.

वह आजकल नमक तेल बेचता है. पत्थर बेचता  है . जमीनें बेचता है. आज मालिक तानाशाह है और पत्रकार गुलाम.वह पत्रकारों को ठेके पर रख कर अपना मतलब साधता हैं.  खोजी पत्रकारिता का अस्तित्व अब खतरे में है.

यदि कोई पत्रकार उत्साहवस कोई अच्छी खबर खोज कर लाता भी है. तो संपादक समूह या तो उसे छपने ही नहीं देता  या उसे इतनी सामान्य खबर बना कर प्रस्तुत करता  हैं की उसका मूल स्वरुप ही गायब  हो जाता है. 

आज की पत्रकारिता नेताओं, धर्म के धंधेबाजों और भोलीभाली असहिष्णु धर्मभीरु जनता को तुष्ट करने का जरिया है. समाचारपत्रों में से कुछ स्तम्भ लेखकों को हटा दिया जाये तो पत्र में समझदार पाठकों के लिए कुछ नहीं बचता  सिवाय रद्दी इक्कठी करने के

आज ईमानदार और कुछ कर गुजरने वाले पत्रकारों की कमी नहीं हैं.लेकिन उनके पास साधन नहीं हैं..

असल में जबसे लघु पत्र पत्रिकाओं  का अस्तित्व संकट में आया, विधायक पत्रकारिता का लगभग लोप सा हो गया. पत्रकारिता विधायक होनी चाहिए. सृजन से सरोकार रखने वाली पत्रकारिता में मानव मूल्य निहित होते हैं. हाशिये पर पड़ी मानव मूल्यों से ओतप्रोत अनदेखी ख़बरों को मुख्य पृष्ठ की विषय वस्तु बनानी होगी तभी जाकर सृजनात्मक पत्रकारिता को सम्मान मिलेगा.

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Sunday, November 8, 2009

बेरहम मनुष्य का दोस्त

 वृक्षों ने मनुष्यों के लिए बहुत कुछ दिया. हमने उनसे सहनशीलता सीखी, हमने उनपर पत्थर बरसाए लेकिन बदले में उन्होंने हमें फल दिए, छाया दी , पर्यावरण को शुद्ध किया. वृक्षों के सौन्दर्य ने सुमित्रा नंदन पन्त, निराला,महादेवी वर्मा आदि अदभुद कवियों के शब्दों को जीवंत और मोहक बनाया. उन्होंने हमारे घरों को रहने लायक बनाया, अपना बलिदान देकर हमारे घरों को सजाया . उनकी ईमानदारी और सीधेपन के कारण हमने उनका भरपूर दोहन किया.


आज स्वहित और तथाकथित विकास के लिए उनका सफाया किया जा रहा है. वृक्ष धीरे धीरे लुप्त हो रहे हैं.
आज लकड़ी के सामान का विकल्प स्टील, लोहा , फाईबर, प्लास्टिक, आदि के रूप में बाजार में उपलब्ध है. हम इतनी कोशिश तो कर ही सकते हैं कि इन विकल्पों को अपने घरों में सजाएँ, उनका उपयोग करें..और वृक्षों पर थोडा तरस खाएं..इन्ही विचारों से उपजीं कुछ पंक्तियाँ....




जब भी देखता हूँ,
अपने घर की चौखट को,


दरवाजों को, खिड़कियों को,


वृक्ष के अवशेषों से निर्मित


आरामदायक कुर्सियों को.




एक हूक सी उठती है दिल में,


रहे होंगे कभी बीज रूप में,


मिटटी के पोषण से आकार लिया होगा


एक नरम मुलायम पौधे ने-


बड़े संघर्षों के बाद स्वयं को बचाते हुए -


बड़ा हुआ होगा वृक्ष,


उगी होंगी फूल और पत्तियां


फूटी होंगी कोपलें


कभी बहता होगा हरा द्रव


होगी सम्पूर्ण चेतना उसमे,




नाचा होगा,


मंद मंद हवा के झोकों में


महकाया होगा वन उपवन,


प्रफुल्लित हुआ होगा-


जब किसी पथिक ने,


बिताये होंगे क्षण दो क्षण,


उसकी छाया में


वही वृक्ष


आज है निर्जीव,


मनुष्य के क्रूर बेरहम हाथों ने


छीन लिया


उसे इस धरा से.


देखता हूँ आज ,  
दरवाजे, खिड़कियाँ, कुसियाँ...


अस्तित्व खोकर भी,


बेरहम मनुष्य का दोस्त......

Sunday, November 1, 2009

मेरी प्रथम पचास टिप्पणियाँ....और स्नेही मित्रों का आभार.

आज से दो माह पहले ब्लॉग सफर शुरू किया था यह सफर कहाँ तक पहुंचेगा यह तो भविष्य के आगोश में है, लेकिन इसका प्रतिफल मेरे लिए सुखद रहा .सबसे पहले में रचना जी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहूँगा जिन्होंने पता नहीं कहाँ से खोज कर मेरा ब्लॉग पढ़ लिया और तत्काल टिप्पणी से भी मेरा उत्साहवर्धन किया जबकि मैं उस समय किसी भी एग्रीगेटर से नहीं जुड़ा था. हालाँकि अब उनकी प्रोफाइल मौजूद नहीं है लेकिन मैं उन्हें नारी ब्लॉग के माध्यम से पढता रहता हूँ.

ब्लोगवाणी और चिटठा जगत से जुड़ने के बाद मेरे दुसरे आलेख पर जिन मित्रों की टिप्पणियाँ आईं वे ब्लॉग दुनिया के जाने माने नाम हैं.. बी. एस. पाबला. संदीप वेदरत्न शुक्ल, चन्दन कुमार झा, गार्गी गुप्ता, अमित के सागर... मैं उनका ह्रदय से आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया.

मेरे तीसरे आलेख को सुशील कुमार छौक्कर, वीनस केशरी, हरकीरत हकीर, और सुमन जी ने अपने सुन्दर शब्दों से सराहा.
 मेरे चौथे आलेख पर हिंदी ब्लॉग एवं टिप्पणियों के शहंशाह उड़न तश्तरी वाले समीर लाल जी उपस्थित हुए. उन्हें अपने ब्लॉग पर पाकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई.. साथ में उपस्थित हुए अनिल कान्त , रूपम, राजेश कुमार और अनुराग

अपने पांचवे आलेख में मैं परिचित हुआ ब्लॉग जगत की कुछ अनूठी हस्तियों से. मेरे इस आलोचनात्मक लेख पर उनकी सहमती और असहमति दोनों ही प्रेम पूर्ण ढंग से अभिव्यक्त हुईं. पी. सी. गोदियाल, दिगंबर नासवा, अविनाश वाचस्पति, दीप्ती, अनूप शुक्ल रूपम और अनुराग का बहुत बहुत आभार....
मेरा अगला आलेख मटुकजूली ब्लॉग पर आधारित था. इस लेख पर आदरणीय निर्मला कपिला जी और कार्टूनिस्ट काजल कुमार की असहमति थी. विचारों से सहमती असहमति जिन्दगी का एक हिस्सा है दोनों इस ब्लॉग पर पधारे यही मेरे लिए बहुत है. इसके साथ ही दीप्ती, मटुकजूली, और अनुराग ने अपने विचारों से मुझे अवगत कराया.. बहुत बहुत धन्यवाद...

"आस्तिक और नास्तिक एक ही थैली के चट्टे बट्टे" इस आलेख पर मुझे सबसे पहले टिप्पणी मिली आदरणीय दिनेश राय द्विवेदी जी की.. उनको पढ़कर मुझे अपने लेखन की सार्थकता समझ में आई . ब्लॉग दुनिया को द्विवेदी जी से सीखने के लिए बहुत कुछ है उनके आलेख तो मजेदार होते ही हैं उनकी टिप्पणियाँ भी सारगर्भित और प्रेरणा से परिपूर्ण होती हैं. उनके लेखन और व्यक्तित्व पर अलग से ही कुछ लिखा जा सकता है. इसी आलेख पर लवली कुमारी, प्रवीण शाह, संजय ग्रोवर , सुमन और रूपम की टिप्पणियाँ भी प्राप्त हुयीं. लवली कुमारी तो पूरी तरह से वैज्ञानिक हैं, एवं प्रवीण शाह भी वैज्ञानिक विचार धारा का पोषण करते हैं हालाँकि मेरा विचार है कि अध्यात्म और विज्ञानं अलग अलग नहीं हैं. खोज करने के रास्ते अलग हो सकते हैं..


मेरे अगले आलेख पर जिन महानुभावों की टिप्पणियाँ मुझे मिलीं. वे भी ब्लॉग जगत के सम्मानीय नाम हैं. अर्शिया, अरविन्द शुक्ला, संजीव कुमार सिन्हा, आर्जव, सतीश सक्सेना, अरुण राजनाथ/ अरुणकुमार, मनोज भारती, अफलातून, रूपम, की टिप्पणियाँ मेरे लिए प्रेरणादायक रहीं विचारों से ओत प्रोत सुन्दर अभिव्यक्तियों के लिए मेरा आभार स्वीकार करें.

मेरा अगला आलेख जहाँ मेरी पचास टिप्पणियाँ पूरी होती हैं, उनमे शामिल हैं, मेरे मित्र -अफलातून, सची, रूपम, विनय, मुनीश, प्रवीण शाह, मुमुक्ष की रचनाये, रविकुमार, गठरी,  इन सभी का बहुत बहुत अभिनन्दन, विश्वाश है कि आगे भी मुझे आपका प्यार इसी तरह से मिलता रहेगा. ..


और अंत में आभारी हूँ मेरे दो अभिन्न मित्रों का, प्रथम अनुराग जो हमेशा मुझे ब्लॉग दुनिया की तरफ ठेलते रहे और रूपम  का जिन्होंने मुझसे तकनीकी सहयोग बनाये रखा.
शेष अगली बार....


Sunday, October 25, 2009

निस्संदेह हिंदुत्व खतरे में है!!!

हमारे देश के हिन्दू संगठन रातदिन हो हल्ला मचाते हैं, हिन्दू एक नहीं हैं. धर्म परिवर्तन करके मुसलमान या ईसाई बन रहे हैं. हिंदुत्व खतरे में है....पूछने पर कि ऐसा क्यों है? सारा दारोमदार इसलाम का प्रचार या ईसाई मिशनरियों के ऊपर थोप दिया जाता है....लेकिन हिन्दू समाज की विसंगतियों पर किसी संगठन या धर्माधिकारी का ध्यान नहीं जाता है. दूसरे धर्मों के लोग इस महान कहे जाने वाले हिन्दू समाज में दीक्षित क्यों नहीं हो रहे हैं..?

 यही प्रश्न मैंने अपने एक मित्र जो कि विश्व हिन्दू परिषद् के जिला महामंत्री हैं, के सामने रखा. लेकिन मुझे कोई समुचित उत्तर न मिलने पर मैंने उनसे कहा कि बहुत से अन्य धर्मों के लोग हैं जो कि   इस हिन्दू  धर्म में दीक्षित होना चाहते हैं, लेकिन पहले यह बताइए कि दीक्षित होने के बाद आपका विश्व हिन्दू परिषद् उन्हें किस जाति में रखेगा? आपके धर्म में शूद्र होना कोई नहीं चाहेगा क्या आप उन्हें ब्राह्मण वर्ग में जगह दे सकते हैं और कि क्या ब्राह्मण वर्ग उन्हें  ह्रदय से स्वीकार कर उनसे रोटी बेटी का सम्बन्ध स्थापित कर सकता है...? उनके उत्तर की प्रतीक्षा आज भी है मुझे...

सच तो यह है इस आधुनिक युग में भी हम कविलियाई संस्कृति से मुक्त नहीं हुए हैं 'आप ब्राह्मण, मैं भी ब्राह्मण आप कायस्थ , मैं भी कायस्थ- अब ठीक! अब ढपली ठीक बजेगी! आज भी हमारे यही विचार हैं. रेल में सफर करते हुए जब तक हम सहयात्री की जाति नहीं जान लेते हमारी आत्मा बेचैन रहती है.. और ये अनपढों की बातें नहीं शिक्षित और उच्च शिक्षित लोगों की भी यही मानसिकता है.

सभी ने अपने अपने संघ या कबीले बना रखे हैं. ब्राह्मण महापंचायत, क्षत्रिय समाज , अखिल भारतीय कायस्थ समाज,
कोरी समाज,  यादव समाज और न जाने क्या क्या...और यह सारा खेल समाज व्यवस्था के नाम पर चल रहा है.

चाहे विश्व हिन्दू परिषद् हो शिवसेना हो, बजरंग दल हो या अन्य कोई दलदल इस तरफ से सभी ऑंखें मूंदे हुए हैं, सभी लोगों के पांव जातिवाद के  कीचड में सने हैं. लोग मुसलमानों का विरोध कर रहें हैं ,लेकिन हिन्दू समाज की सडांध पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.

कट्टरवाद रूपी कैंसर से पीड़ित समूह, धर्म के नाम पर हिन्दू समाज को नालायक बनाये रखने की चाल में सफल है. उन्हें पता है कि यदि हिन्दू समाज अपनी जाति की बेडियों से मुक्त हो गया तो उसे मूर्ख   बनाना मुश्किल हो जायेगा. यदि एक जाति दूसरी जाति से मेल मिलाप करने लगी तो जाति के नाम पर श्रेष्ठता अर्जित करने वाले और उन पर अपनी धाक जमा कर रोजी रोटी चलाने वालों  का क्या होगा? और यही हिन्दू दुसरे धर्मों से मेलजोल और  उनसे रोटी बेटी का सम्बन्ध रखने लगा  तो, शिवसेना और विश्व हिन्दू परिषद् आदि संगठनो का क्या होगा, उनकी नेतागिरी किस दम पर चलेगी?

बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद हिन्दू, मुस्लमान की खाई को और अधिक गहरा किया गया है. हिन्दू को और अधिक हिन्दू और मुसलमान को और अधिक मुसलमान बनाने का कुप्रयास निरंतर जारी है. हिन्दू इसके पूर्व अपने समाज में व्याप्त बुराइयों पर खुल कर चर्चा करता था लेकिन अब अपने ही गिरेहबान में झाँकने की उसकी हिम्मत नहीं होती. हिंदुत्व पर खतरा जैसा विचार उसके मस्तिष्क में बिठा दिया गया है. इस मानसिकता का सबसे अधिक कुप्रभाव युवा पीढी पर देखने को मिल रहा है. अब तो कुछ लोग सड़ीगली परम्पराओं को फिर से स्थापित करने के लिए इन कुप्रथाओं में तर्क और वैज्ञानिकता ढूँढने का बेढंगा प्रयास करने में जुटे हैं...
हम भविष्य की पीढी के लिए कौनसा आदर्श उपस्थित कर रहे हैं आज इस बात को समझना हर प्रबुद्ध व्यक्ति की प्रथम आवश्यकता है...

Sunday, October 11, 2009

गंगा जमुनी संस्कृति को समझो मेरे हिन्दुस्तानी मित्र!!!

मेरे दिन की शुरुआत आबिदा परवीन की गाई कबीर बानी से शुरू होती है. नुशरत फतह अली खान एवं ए आर रहमान का मैं जबरदस्त प्रशंसक हूँ.. आमिर खान और दिलीप कुमार मेरे सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं की सूची में हैं. मैं शाहरुख़ को पसंद करता हूँ और सलमान खान के परिवार को इस देश के लिए एक आदर्श परिवार... मुझे सितारवादक रविशंकर और अनुष्का शंकर के साथ साथ सरोदवादक अमजद अली खान और उनकी न्रत्यांगना पत्नी शुभलक्ष्मी एक कलाकार के रूप में बेहद पसंद है. आमिर खान और शाहरुख़ खान की पत्नियाँ हिन्दू है, और ऋतिक रोशन और सुभाष घई की पत्नियाँ मुस्लिम समाज से सम्बन्ध रखती हैं, ये लोग अपने अपने धर्म का पालन करते हुए भी एक साथ जीवन व्यतीत कर रहे है, इनकी पत्नियाँ स्वतंत्र है. मैंने अभी तक नहीं पढ़ा या सुना कि धर्म के कारण इनमे कभी कलह हुई हो... इन सब प्रत्यक्ष उदाहरणों के बाद भी देश में साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं...

किसी भी देश की संस्कृति किसी की व्यक्तिगत बपौती नहीं होती. समय के साथ साथ इसमें बदलाव होता है. कई संस्कृतियों के मेल से एक संस्कृति का जन्म होता है. और वह संस्कृति समय के साथ फलती फूलती रहती है. जब किसी संस्कृति में कट्टरता के तत्व आ जाते हैं तो वह संस्कृति स्वतंत्रता में बाधक बन जाती है. और वहीँ से उसका पतन शुरू हो जाता है. संस्कृति का मूल स्वभाव लचीला होता है...हमारी संस्कृति ही गंगा जमुनी है.

जब जगजीत सिंह अपनी मधुर आवाज में निदाफाजली और बशीर बद्र को सुनाते हैं, जब पॉँच वक्त की नवाज पढने वाले मुहम्मद रफी गाते हैं "वृन्दावन का कृष्ण कन्हैया सबकी आँखों का तारा " या नौशाद की धुन पर "मन तरपत हरि दर्शन को आज " तो आपको कौनसा धर्म याद रहता है..?.

जब इस्मत चुगताई प्रथ्वी राजकपूर की एक झलक पाने के लिए बेताब रहती हैं. जब अमृता प्रीतम साहिर लुधियानवी के ख्वाबों में खोई रहती हैं. जब नरगिश राजकपूर से प्रेम करती है. और सुनील दत्त बिना भेदभाव के नरगिश से शादी कर लेते है. जब प्रसिद्द कहानीकार नासिरा अपने नाम के साथ शर्मा जोड़ कर नासिरा शर्मा लिखतीं हैं. जब प्रसिद्द साहित्यकार एवं महाभारत के संवाद लेखक राही मासूम रजा की बहु स्वयं को लिखती है पार्वती खान और जब कोई इंदिरा पारसी युवक फिरोज से विवाह करती है,और महात्मा गाँधी उसका समर्थन करते है. तब इस देश की संस्कृति गौरवान्वित होती है और मनुष्यता सम्मानित....

बुद्ध महावीर कबीर के देश में हम किसी एक धर्म की अंगुली पकड़ कर नहीं चल सकते. धर्म का अर्थ ही होता है धारण करना अर्थात जो ग्रहण करने योग्य हो, इस तरह यह बिलकुल व्यक्तिगत वस्तु है. जिस धर्म में जो बात अच्छी है उसे अपनाना बुरा नहीं है. लेकिन कोई कहे की वैष्णव धर्म ही महान है या इस्लाम धर्म सर्वश्रेष्ठ है. तो आज के युग में यह बात स्वीकार योग्य नहीं है.

कोई सा भी धर्म न तो बड़ा है.और न छोटा . यदि इसलाम शांति और अमन की बात करता है.तो उपनिषद भी बसुधैव कुटुम्बकम और सत्यमेव जयते का उदघोष करते हैं. असल में सारा झगडा गलत तालीम दूषित राजनीति, फिरकेपरस्ती का है. जिन लोगों के गले में धर्म के ढोल टंगे हुए हैं. वे कहीं न कहीं किसी राजनीतिक दल से जुड़े हुए हैं या धार्मिक गुटबंदी और फिरकापरस्ती के शिकार हैं...

मेरे एक ब्लोगर मित्र ने एक बहुत प्यारी बात कही है. कि "आप अपने धर्म का प्रचार करें, उससे हम भी कुछ सीखेंगे लेकिन दुसरे धर्म को नीचा दिखा कर नहीं. " यदि आपको धर्म की बुराइयाँ ही गिनानी हैं तो पहले अपने धर्म का सूक्ष्म अवलोकन करें यदि यह संभव नहीं है. तो अपने समाज की ही छानबीन करलें यह बात सभी धर्मों के लिए समान रूप से है..

फिल्म लेखक सलीम खान का घर भारतीय परिवार का एक आधुनिक फार्मूला है. उनके परिवार में सभी धर्म के लोग शामिल हैं . सलीम के ही शब्दों में " क्या कठमुल्ले और धर्मांध लोग जानते हैं कि सलमान की माँ एक महाराष्ट्रियन हिन्दू है. और सलमान का एबिलिकल कार्ड उसकी माँ से जुडा हुआ है! उसकी माँ अपने घर से रुखसत लेकर इस घर में आई तो जरूर, मगर अपने माँ बाप, भाई बहन , रिश्तेदार और अपने धर्म को छोड़ कर नहीं. सलमान ने अपनी माँ के धर्म की इज्जत करना उसकी गोद में ही सीखा है. यही हर मजहब सिखाता है. वह आगे कहते हैं..... मुझसे किसी ने पूछा आप लोगों का आखिर मजहब क्या है? मैंने बताया कि जब कार का जोर से ब्रेक लगता है और हम किसी खतरनाक एक्सीडेंट से बाल बाल बच जाते है,तो मेरे मुंह से बेसाख्ता निकलता है- अल्लाह खैर, मेरी बीवी के मुंह से निकलता है अरे देवा! और मेरे बच्चों के मुंह से साथ साथ निकलता है, ओह, शिट! यही हमारी फेमिली के नेशनल इंटीग्रेशन का एक छोटा सा फार्मूला है.."

क्या ऐसा ही फार्मूला पूरे देश में लागू नहीं हो सकता????

Saturday, October 3, 2009

खुशवंत सिंह का रामराज्य

खुशवंत सिंह हिंदी के लेखक नहीं हैं। लेकिन बचपन से मैं उन्हें हिंदी में पढता आया हूँ. जब भी उन्हें हिंदी चैनलों पर सुना हिंदी में बोलते हुए पाया. उनसे एक बार पूछा गया कि आप हिंदी में क्यों नहीं लिखते तो उनका जवाब था कि मुझे हिंदी में लिखने का शऊर नहीं है , यानि हिंदी में लिखने की कला से वह अनभिज्ञ हैं.

खुशवंत सिंह मुझे बेहद पसंद हैं...कारण? वह थोडा अलग हट कर सोचते हैं॥ बंधी बंधाई परिपाटी पर नहीं चलते हैं। उनके विचार उन्मुक्त हैं.. वह मनुष्यता और उसके जीने के ढंग को प्राथमिकता देते हैं। उनका लेखन भेदभाव रहित है। वह विद्रोही हैं. ताजी हवा का झोंका हैं. वह स्वयं को नास्तिक कहते हैं. लेकिन वह नास्तिक नहीं हैं, वह आस्तिक भी नहीं हैं. वह ईश्वर पर विश्वाश नहीं करते लेकिन जो बात अनुभव में आ जाये वह बिना लाग लपेट के सीधा अभिव्यक्त करते हैं....

वह सेक्स पर खुल कर बोलते हैं और इस धरती पर रहकर परिंदों की तरह आसमान में स्वच्छंद विचरण करते हैं। एक ही ढर्रे पर चलने वाले समाज के लिए वह "मिसफिट" हैं। छद्म नैतिकता के आवरण में दुबके समाज के लिए उनके विचार हानिकारक हो सकते हैं... ९४ साल की उम्र में भी उनके विचार युवा मानसिकता को मात देने वाले हैं... नए हिंदुस्तान के बारे में उनके विचार एक दम बिंदास हैं... उनके ही शब्दों में ....

"अपने सपनों के भारत के बारे में कई बातें कहना चाहता हूँ। सबसे पहले तो मैं चाहूँगा कि भारत धर्म, शकुन विचार, और जन्मपत्री तथा ज्योतिष जैसी चीजों में अन्धविश्वाश करना छोड़ दे। देश परम्पराओं के मुर्दा बोझ, स्त्रियों से भेदभाव, पर्दा, संयुक्त परिवार के बोझ और आयोजित विवाहों से स्वतंत्र हो जाये।


मेरी राय में विवाह की संस्था अनुपयोगी हो चुकी है। अब बिना बाधा के और आसानी से तलाक पाने की सुविधा होनी चाहिए। सेक्स का आनंद लेने की अधिक स्वतंत्रता होनी चाहिए। तथा शराब और नशीले पदार्थों पर प्रतिबन्ध नहीं रहना चाहिए. लोग अपना जीवन किस तरह जीना चाहते हैं ये पूरी तरह उन पर छोड़ दिया जाए...

दमन कारी कानूनों और लोगों के निजी मामलों में सरकारी हस्तक्षेप में आजादी हो... किसी प्रकार की हिंसा का भय न रहे... न तो सरकार से और न किसी व्यक्ति से, ताकि लोग जिन जंजीरों में बंधे हुए हैं, उनसे आजाद हो जाएँ तथा उत्पादनशील, रचनात्मक, स्वतंत्र हो सकें... मैं तो ऐसे रामराज्य का ही स्वप्न देखता हूँ... "
(द ' इल्लसट्रटिड वीकली' के एक पुराने अंक से तारिका में प्रकाशित एक स्तंभ से साभार.....)



Saturday, September 26, 2009

आस्तिक और नास्तिक एक ही थैली के चट्टे बट्टे

खलील जिब्रान की एक लघु कथा है.....
अफकार नामक एक प्राचीन नगर में किसी समय दो विद्वान् रहते थे. उनके विचारों में बड़ी भिन्नता थी. एक दुसरे की विद्या की हंसी उड़ाते थे. क्योंकि उनमे से एक आस्तिक था और दूसरा नास्तिक.
एक दिन दोनों बाजार में मिले और अपने अनुयायियों की उपस्थिति में ईश्वर के अस्तित्व पर बहस करने लगे घंटों बहस करने के बाद एक दुसरे से अलग हुए.
उसी शाम नास्तिक मंदिर में गया और बेदी के सामने सिर झुका कर अपने पिछले पापों के लिए क्षमा याचना करने लगा। ठीक उसी समय दूसरे विद्वान ने भी, जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता था, अपनी पुस्तकें जला डालीं, क्योंकि अब वह नास्तिक बन गया था...

ईश्वर है या नहीं इस तरह की बहस अनंत है, ईश्वर है, के भी हजार उदाहरण हैं और ईश्वर नहीं है के भी हजार उदाहरण हैं। कोई किसी से कम नहीं है. न नास्तिक और न ही आस्तिक. इसी कारण जब बुद्ध से पूछा जाता था कि ईश्वर है या नहीं तो बुद्ध मौन रह जाया करते थे॥

क्योंकि बहस बेमानी है। नास्तिक का मतलब है जिसने मानने से इंकार कर दिया. और आस्तिक वह है जो मान कर बैठा है कि ईश्वर है. वह ग्रंथों से हजार उदाहरण ढूंढ कर आपके सामने रख देगा . देखो! इस ग्रन्थ में लिखा है. लेकिन उसका अपना कोई अनुभव नहीं है उसकी अपनी कोई खोज नहीं है उसे सिखा दिया गया है, कि ईश्वर है, उसकी पूजा करो अब वह दिमाग को एक तरफ रख कर ईश्वर की पूजा करने लगता है. कुछ दिनों में यह आदत बन जाती है.

ओशो आस्तिक और नास्तिक दोनों को खूब छकाते थे । यदि कोई कहता कि ईश्वर है, तो वह कहते थे नहीं है, और यदि कोई कहता था कि ईश्वर नहीं है तो वह कहते थे कि है, तुम भूल कर रहे हो.

असल में बात अस्तित्व की होनी चाहिए। अस्तित्व महत्त्व पूर्ण है, उसको समझा जाये। वैज्ञानिक ढंग से, दार्शनिक रूप से, भीतर की यात्रा करके, किसी भी तरह, रास्ते कई हो सकते हैं.

दूसरों के शब्द हो सकते हैं, लेकिन अनुभव स्वयं का ही होगा. अपना ही दीया स्वयं बनकर जो ईश्वर सम्बन्धी विचार आयेगा. वह सांसारिक ईश्वर नहीं होगा, वह तुलसी के राम की तरह अवतार भी नहीं होगा. वह पूजा पाठ वाला ईश्वर कदापि नहीं हो सकता।

उस ईश्वर को आइंस्टाइन और कार्ल मार्क्स भी पूरी तरह से स्वीकार करेंगे वह विचार अस्तित्व से एकाकार हो जायेगा।

अहोभाव! जिस रोज ह्रदय में आ गया, हम ईश्वर है या नहीं इसके पचडे में नहीं पड़ेंगे। गाँधी और कबीर का राम तुलसी का राम कभी नहीं था . क्योंकि तुलसी के राम मनुष्यों की तरह व्यबहार करते हैं. ईश्वर का मानवीकरण नहीं हो सकता. समग्र को अल्प में कैसे कैद किया जासकता है. मानव का एश्वारिय्करण हो सकता है. मनुष्य में ही भगवान बनने की प्रबल सम्भावना है।

आलावा इसके ईश्वर तो एक शब्द मात्र है. जो अपनी सुबिधा के लिए मनुष्य ने गढा है. अन्यथा तो वह परम उर्जा ही है. उस परम उर्जा को समझना ही अस्तित्व को पा लेना है।
इस परम उर्जा को समझने के लिए खलील जिब्रान की एक लघु कथा बहुत उपयोगी है. यहाँ प्रस्तुत है......

प्राचीन काल में जब मेरे होंट पहली बार हिले तो मैंने पवित्र पर्वत पर चढ़ कर ईश्वर से कहा : "स्वामिन! में तेरा दास हूँ. तेरी गुप्त इच्छा मेरे लिए कानून है. में सदैव तेरी आज्ञा का पालन करूंगा."
लेकिन ईश्वर ने मुझे कोई जबाव नहीं दिया. और वह जबरदस्त तूफान की तरह तेजी से गुजर गया.
एक हजार वर्ष बाद में फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और ईश्वर से प्रार्थना की," परमपिता में तेरी सृष्टि हूँ, तूने मुझे मिटटी से पैदा किया है और मेरे पास जो कुछ है, सब तेरी ही देन है."
किन्तु परमेश्वर ने फिर भी कोई उत्तर न दिया और वह हजार हजार पक्षियों की तरह सन्न से निकल गया.
हजार वर्ष बाद में फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और ईश्वर को संबोधित कर कहा," हे प्रभु में तेरी संतान हूँ, प्रेम और दया पूर्वक तूने मुझे पैदा किया है. और तेरी भक्ति और प्रेम से ही में तेरे साम्राज्य का अधिकारी बनूंगा .'
लेकिन ईश्वर ने कोई जबाव नहीं दिया और एक ऐसे कुहरे की तरह, जो सुदूर पहाडों पर छाया रहता है, निकल गया
एक हजार वर्ष बाद मैं फिर उस पवित्र पहाड़ पर चढा और परमेश्वर को संबोधित करके कहा:
मेरे मालिक! तू मेरा उद्देश्य है और तू ही मेरी परिपूर्णता है. मैं तेरा विगत काल और तू मेरा भविष्य है.मैं तेरा मूल हूँ और तू आकाश में मेरा फल है. और हम दोनों एक साथ सूर्य के प्रकाश में पनपते हैं. "
तब ईश्वर मेरी तरफ झुका और मेरे कानों में आहिस्ता से मीठे शब्द कहे और जिस तरह समुद्र अपनी और दौड़ती हुई नदी को छाती से लगा लेता है उसी तरह उसने मुझे सीने से लिपटा लिया.
और जब में पहाडों से उतर कर मैदानों और घाटियों में आया तो मैंने ईश्वर को वहां भी मौजूद पाया ...

Tuesday, September 22, 2009

दक्षिण पूर्व एशिया की ब्लोगिंग खतरे में

कल्पना कीजिये आपने सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ एक जोरदार लेख लिखा, और पोस्ट कर दिया.
आप बड़े खुश हो रहे होंगे, अपनी स्वतंत्र विचारधारा और सोच पर...... थोडी देर बाद आपके घर पुलिस पहुँच जाती है, और आप जेल में डाल दिए जाते हैं ।
आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली जाती है।

जी हाँ, "दी वाल स्ट्रीट जर्नल" समाचार पत्र के अनुसार नेट पर पहरे बिठाये जाने लगे हैं..और दक्षिण पूर्वी एशिया में इसकी शुरुआत हो चुकी है।

थाईलैंड वियतनाम , मलेशिया आदि देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है.
ब्लोगर्स को धमकियाँ दी जा रही है., उन्हें जेलों में डाला जा रहा है,...

मलेशिया में औपनिवेशक काल के आन्तरिक सुरक्षा कानून को लागू कर दिया है, जिसके कारण किसी भी ब्लोगर को
बिना किसी मुकद्दमे के दो साल तक जेल में रखा जा सकता है ...
यही हाल थाईलैंड का है. वहां 'कंप्यूटर अपराध कानून' लागू किया है, ब्लोगर्स और शाही परिवार के विरुद्ध बोलने वालों की धरपकड़ जारी है. यह हवा वियतनाम और चीन में भी फैल रही है...

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक निराश है. उन्होंने सोचा था कि दक्षिण पूर्व एशिया भी विकसित देशों जैसा उदाहरण पेश करेगा. लेकिन अब उन्हें चिंता है कि यह हवा अन्य देशों के वातावरण को विषाक्त न कर दे...

जहाँ तक भारत का सम्बन्ध है, यहाँ भी तालिवानी मानसिकता के लोग कम नहीं है. और इस मानसिकता को भुनाने वाले नेता भी अपने विकराल रूप में जीवित है।

फिल्मों पर सेंसर ऐसी ही मानसिकता का एक छोटा सा उदाहरण है. यहाँ कई बार पत्रकारों की लेखनी पर लगाम कसने की असफल कौशिश की गई।

सलमान रुश्दी की 'सैटेनिक वर्सेस' किताब पर सबसे पहले भारत में ही प्रतिबन्ध लगाया गया था. आश्चर्य की बात यह है, कि उस वक्त पाकिस्तान में इस पुस्तक पर प्रतिबंध नहीं था, आयतुल्ला खुमैनी के फतवे का असर भारत में सर्वाधिक था....

जसबंत सिंह की पुस्तक पर प्रतिबंध तालिबानी मानसिकता का एक अन्य उदाहरण है. भारत में धार्मिक लोगों की भावनाएं इतनी नाजुक हैं, कि सत्य के एक छोटे से कंकर से चकनाचूर हो जाती हैं. किसी सत्य को बयान करने वाली पेंटिंग, उपन्यास या कोई अन्य कृति पर हुडदंगिये बेशर्मी की हद तक चले जाते हैं।

हुडदंगियों और सरकार की गलत नीतियों के कारण हम तसलीमा नसरीन जैसी आतंकवाद के खिलाफ लड़ने वाली लेखिका को अपने विशाल ह्रदय हिंदुस्तान में थोडी सी जगह नहीं दे पाए....

भला हो उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में बैठे परम सम्मानीय न्यायधीशों का जिनके कारण इस देश का पूर्ण तालिवानी करण नहीं हो पाया ....

हालाँकि उन ब्लोगर्स को चिंता करने की जरूरत नहीं है, जो कि सॉफ्ट ब्लोगिंग को पसंद करते हैं और नितांत व्यक्तिगत हैं. लेकिन सामाजिक बदलाव और राजनितिक और धार्मिक नेतागिरी के खिलाफ बोलने वाले ब्लोगर्स को एक जुट हो कर रहना होगा...

आपका क्या विचार है? क्या भारत में कभी ये नौबत आ सकती है. ? उस स्थिति में हमें क्या करना होगा? पूरा समाचार जानने के लिए
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